ओवरब्रिज

बड़े शहर की सड़कों पररेलवे स्टेशन परहर भीड़ वाली जगह परओवरब्रिज होता है। नये-पुराने विचारधुंधली विचारधारायेंछोटे-बड़े लोगचल कर उसके कंधों पर इस पार से उस पार हो जाते हैं;काल की गतिशीलता का साक्षीओवरब्रिज एक स्थायित्व हैन वो किसी का हैन कोई उसका हैउस पर कोई नहीं रुकताचल कर उस परबस पार हो जाते हैं। शराबContinue reading “ओवरब्रिज”

दो अधूरे लोग

मैं सब कुछ लिख दूँगीतुम सब कुछ पढ़ लोगे,मैं सब कुछ कह दूँगीतुम सब कुछ सुन लोगे,दो अधूरे लोगों में फिरबचा क्या रह जायेगा? क्यों कहते नहीं तुम कुछलिखते क्यों नहीं अपना मन,आँखों के गहरे सागर सेकब उमड़ेंगे भाव सघन,मैं सब कुछ कह दूँगीतुम सब कुछ सुन लोगे,दो अधूरे लोगों में फिरबचा क्या रह जायेगा?Continue reading “दो अधूरे लोग”

रद्दी

बहुत दिनों बाद आज आँधी आयी थी-  चेहरे पर, आँखों के कोरों में, बालों में, खिसखिसाते दाँतों  में, धूल जम गयी है; पर  सबसे बुरा ये हुआ  सालों की सहेजी रद्दी उड़ गयी।  कितनी पुरानी अनपढ़ी खबरें   अनदेखे इश्तेहार  तुम्हारे सॉल्व किये सुडोकु  छज्जे पे बीती रविवारी दोपहरी  टहलते हुये पढ़ी-सुनी  हुयी कहानी  तुम्हारी सिगरेटContinue reading “रद्दी”

बेरोज़गार इश्क़

शेखर (परिचय के लिये क्लिक करें) ने  शहरी परिदृश्य में प्रेम को अपने सुंदर शब्दों के माध्यम से टटोला है।  ऐसा प्रेम जिसमें चाँद-तारे तोड़ने के वादे नहीं पर घडी की टिक-टिक गिनने की सहजता है।  ऐसा प्रेम जो तार्किक है और किया जा सकता है, सिर्फ सोचा नहीं जा सकता।  इसी यथार्थपरकता के भाव केContinue reading “बेरोज़गार इश्क़”

जब तुम मिल जाती हो

तुम नसीम सी हो मन महक जाता है  जब तुम मिल जाती हो।  तुम दुआ सी हो  बला टल जाती है  जब तुम मिल जाती हो।  तुम धागे सी होभावों की तुरपन हो जाती हैजब तुम मिल जाती हो। तुम चीनी सी होशाम मीठी हो जाती हैजब तुम मिल जाती हो। तुम सुरों सी होज़िंदगीContinue reading “जब तुम मिल जाती हो”

मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?

मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?क्या माँगना स्वाभिमान है?एक मध्य-वर्गीय शोषित हूँ मैंमेरी हड्डियाँ नहीं गली हैंमेरे पीठ-पेट नहीं हैं एकमेरा कमरा किताबों सेफ़ोन कई छूटी कालों सेघर आशावान घरवालों सेजीवन सपनों की शैवालों सेपूरी तरह भरा है,पर मेरा ह्रदयमेरी आत्मामेरा मन, सब खाली है!नितांत एकांत का सन्नाटाजहाँ मुझे कोई नहीं पहचानता,मैं, स्वयं भी नहीं।Continue reading “मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?”

तीन डंठलों वाला पौधा

तुम्हारे दिये पौधे में  बस तीन डंठलें बची हैं,  सब दिखता है  शीशे के गमले के आर-पार  इसलिये उस में नहीं जमा होने दी  कभी कोई गन्दगी; दावा तो नहीं है पर झूठ भी नहीं  दिल ने तुम्हें बिना किसी संशय  हमेशा निश्छल ही चाहा है, बड़ी मेहनत से बदला है रोज़ पानी  तब जाकरContinue reading “तीन डंठलों वाला पौधा”

मासूम

मुख़ालफ़त हमसे करते इश्क़ तो मासूम थासज़ा ज़ुबाँ को देते दिल तो बेचारा मासूम था तुम्हारे तग़ाफ़ुल से मर गया जो जीते जीकह दो तुम ही वो शख़्स नहीं मासूम था भूल के सब दुनियादारी जिसने किया इज़हारलबों को बंद रखने वाला वो शख़्स मासूम था तुम बड़े बन गये सब से कह कर बड़ीContinue reading “मासूम”

जीवन एक विडंबना है

जीवन एक विडम्बना है-सफ़ेद सुन्दर है शांत है बाहरबूढ़ा है,बदसूरत है बाल पर;लाल क्रान्ति है प्रेम हैशरीर से निकले तो हिंसा है;काला सोखता है सब प्रकाशअदालत में काले की ही सत्ता है;जीवन जब तक हाँ में हाँ हैतब तक जीवन हैप्रश्न और विरोध के आते हीजीवन एक विडंबना है। – प्रशान्त