वो जो अधूरा सादूर खड़ा है अपना जीवनहो जाएगा वो तो पूरामेरे पास अगर तुम आ जाओ, किसको है मुकम्मल जहाँ की उम्मीदकिसे चाहिए सब कुछ साबूतबस थोड़ी सी ख्वाहिश हैहम दोनों मुकम्मल हो जाएँ, वो छाप तुम्हारी उंगली कीथी तो मेरे हाथों परअब छपी हुयी है दिल परपकड़ो हमेशा तुम हाथ जो मेराहमारा सपना पूरा हो जाए, नाContinue reading “तू मेरे पास जब भी आ जाए”
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वो डोर कहाँ टूटी ही थी
वो डोर कहाँ टूटी ही थीजिसको तुम टूटा जान रही होवो बात कहाँ भूली ही थीजिसको तुम भूला मान रही होऔर कहाँ बदला था कहीं कुछजिसको तुम बदला मान रही होसाल दो साल होते ही क्या हैंसोचो तो बहुत सोचो तो ना कुछकुछ याद करो उन परिंदों कोजो उड़े थे घर से संगम की तरफऔर बिछड़े थे बीचContinue reading “वो डोर कहाँ टूटी ही थी”
दोबारा इस दुनिया में आने की ज़रूरत क्या है
बड़ी भीड़ है बाज़ार में जहां कभी मेरी माँ जाती थीआज मिलता है वहीं मुझे सुकून, वजह क्या है इश्क करता है हर कोई अपने तरीके सेफिर अंजाम एक सा होने का सबब क्या है जो सरेआम होना ही है चोरी से लिखा ख़तइश्क छुपाने की आखिर ज़रूरत क्या है और अगर मिल जाए ख़ुशी एकContinue reading “दोबारा इस दुनिया में आने की ज़रूरत क्या है”
मैं वो आवारा हूँ
उकता गयी है अब रात भीमेरे देर तक जागने सेअब चली जाती है जल्दी हीछोड़ मुझे सहर के साथकोसता है मुझ ही कोसोता हुआ आफताबकि मेरी बेचैनीउसकी मोहब्बत में ख़लल देती हैनहीं समझता वो मेरी मजबूरीहै नहीं मेरे पास कहकशां उसकी तरहनहीं आज़ाद मैं चमकताअब्र में उसकी तरहमैं वो आवारा हूँजो ख़ुद में ही कैदContinue reading “मैं वो आवारा हूँ”
Oh FLOOD!
Allahabad Flood, 2013 (Link to the Album) Oh Flood! I knew you only as a metaphor When I drowned in my miseries In all the emotive vain But here you are- real and stark In all your force Making me realise my minuteness Confining me against my will Showing me the boundaries Which were always there,Continue reading “Oh FLOOD!”
पुराना पार्क
जब कभी मन ऊबेतो उस पुराने पार्क में आइयेजिसमें उस पुरानी दोपहर काराज़ आज भी ताज़ा हैबहुतों ने छुआ होगा उस बड़े पत्थर कोपर आपके हाथों का एहसासआज भी ताज़ा हैप्यार कब बासी होता है!उनके साथ नहीं तो अकेले ही सहीफिर छुप कर बैठिये, उनका अंदाज़-ए-इकरारआज भी ताज़ा हैचमकती हँसी के लिबास के पीछेअन्दर फीके होContinue reading “पुराना पार्क”
मन का जहाज
गिराया वक़्त ने बहुत लेकिनबेशर्म निकला मैं भी बहुतइतना किअब कोई चोट दर्द नहीं देतीअब कोई गाली खीझ नहीं देतीअब कोई हार ग़म नहीं देतीअब कोई बात कोई रंग नहीं देतीफिर भी बस इसी सोच मेंजीता रहता हूँ मैंतलाश में उस चाँद कीहै इसी दुनिया में जोजहाँ जा सकता है सिर्फमन का जहाज। -अशांत
संगम
प्रस्तुत लघु-कथा एक कल्पना मात्र है। किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या किसी वस्तु से किसी भी प्रकार की समानता, मात्र एक संयोग है। लेखक का आशय किसी भी विचारधारा या मनुष्य को चोट पहुँचना कदापि नहीं है। दिसम्बर की ये सर्द सुबह लाखों आवाजों से भरी हुई थी। इंसानों का हुजूम कोहरे की घनी चादरों को हरातेContinue reading “संगम”
फिर भी माँ मुझसे बात करती है
मैं कितना बुरा हूँफिर भी माँ मुझसे बात करती है, जिनके कारण लड़ा था मैं तुमसेअपना असली रंग दिखा गएपर तुम आज भी रंगी हुई होममता के अमिट रंग में,आज भी जब सब दावतों मेंमज़े लेते हैं तुम्हे मेरीएक रोटी कम खानेकी बहुत चिंता है,रात में मेरे कमरे की बत्तीजब देर तक जलती हैऔर मैं किताब खोल करजबContinue reading “फिर भी माँ मुझसे बात करती है”
मेरा जीवन तो पहले से निर्धारित था
मेरा जीवन तो पहले से निर्धारित थामैंने ही छेड़-छाड़ कीबाधित कर अविरल प्रवाहमध्यम वर्गी विचारों काजो थे उद्भवित मेरे मध्यम अस्तित्व सेचेष्टा कीकरने को आलिंगन नवीनसमाहित थे अपरोक्ष जिनमेंकुछ सुविचार प्राचीनप्रशंसित ना हुए मेरे प्रयासक्योंकि थे प्रतिकूलसमाज की सामान्यतः संरचना केजहाँ पर उच्चतम निर्णयउच्चतर स्तर पर ही लिये जाते हैंमध्यम अस्तित्व से मैंनेइस नियम की अवहेलनाContinue reading “मेरा जीवन तो पहले से निर्धारित था”