आँख मिचौली

ये कैसी आँख-मिचौली हैतुम जिसमें हमेशा छुप जाते होमैं तुम्हें कभी ढूँढ़ नहीं पाता हूँ। किन शब्दों की बात कहूँजो दिल में रहे या पहुँचे तुम तकमेरा लिखा अब तुम कहाँ पढ़ पाते हो। नाम किसी का लेते हो तुम पर जब वक़्त मोहब्बत का आता हैतुम मेरे जैसे बन जाते हो। वो दोपहर तुमकोContinue reading “आँख मिचौली”

मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ

मैं तुमसे मिलना चाहता हूँनहीं चुप चांदनी रात में,मैं तुमसे मिलना चाहता हूँबड़े शहर की बोलती रात में,मैं तुम्हें देखना चाहता हूँसड़क की दूधिया ट्यूबलाइट में; क्योंकिचाँदनी कवियों ने पुरानी कर दीक्यों छुपने दूँ मैं तुम्हारी सरल सुंदरताऔर खुद तुमकोकिसी कवि की कल्पना में? तुम में पता नहीं क्या दिखायी देता हैशायद सब कुछ- हँसी,Continue reading “मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ”

अकेलापन

एक खाली मेजतीन खाली कुर्सियाँएक अकेला अकेलापन-दो कुर्सियाँ ही खाली थींपिछली बार कहा था तुमने नहीं होगाकभी कोई अकेला,पर देखो न ऐसा क्यों हैपिछली बारजिसने उलझाये थे तुम्हारे बालआज उसने बस टिशू पेपर उड़ायेसच कहें? इन उड़ते काग़ज़ों मेंउड़ता रोमांस भी था। पिछली बार बड़ी मुश्किल सेछः पीले ग़ुलाबों के बीचएक लाल ग़ुलाब वालागुलदस्ता बनवायाContinue reading “अकेलापन”

दो अधूरे लोग

मैं सब कुछ लिख दूँगीतुम सब कुछ पढ़ लोगे,मैं सब कुछ कह दूँगीतुम सब कुछ सुन लोगे,दो अधूरे लोगों में फिरबचा क्या रह जायेगा? क्यों कहते नहीं तुम कुछलिखते क्यों नहीं अपना मन,आँखों के गहरे सागर सेकब उमड़ेंगे भाव सघन,मैं सब कुछ कह दूँगीतुम सब कुछ सुन लोगे,दो अधूरे लोगों में फिरबचा क्या रह जायेगा?Continue reading “दो अधूरे लोग”

बेरोज़गार इश्क़

शेखर (परिचय के लिये क्लिक करें) ने  शहरी परिदृश्य में प्रेम को अपने सुंदर शब्दों के माध्यम से टटोला है।  ऐसा प्रेम जिसमें चाँद-तारे तोड़ने के वादे नहीं पर घडी की टिक-टिक गिनने की सहजता है।  ऐसा प्रेम जो तार्किक है और किया जा सकता है, सिर्फ सोचा नहीं जा सकता।  इसी यथार्थपरकता के भाव केContinue reading “बेरोज़गार इश्क़”

जब तुम मिल जाती हो

तुम नसीम सी हो मन महक जाता है  जब तुम मिल जाती हो।  तुम दुआ सी हो  बला टल जाती है  जब तुम मिल जाती हो।  तुम धागे सी होभावों की तुरपन हो जाती हैजब तुम मिल जाती हो। तुम चीनी सी होशाम मीठी हो जाती हैजब तुम मिल जाती हो। तुम सुरों सी होज़िंदगीContinue reading “जब तुम मिल जाती हो”

मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?

मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?क्या माँगना स्वाभिमान है?एक मध्य-वर्गीय शोषित हूँ मैंमेरी हड्डियाँ नहीं गली हैंमेरे पीठ-पेट नहीं हैं एकमेरा कमरा किताबों सेफ़ोन कई छूटी कालों सेघर आशावान घरवालों सेजीवन सपनों की शैवालों सेपूरी तरह भरा है,पर मेरा ह्रदयमेरी आत्मामेरा मन, सब खाली है!नितांत एकांत का सन्नाटाजहाँ मुझे कोई नहीं पहचानता,मैं, स्वयं भी नहीं।Continue reading “मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?”

तीन डंठलों वाला पौधा

तुम्हारे दिये पौधे में  बस तीन डंठलें बची हैं,  सब दिखता है  शीशे के गमले के आर-पार  इसलिये उस में नहीं जमा होने दी  कभी कोई गन्दगी; दावा तो नहीं है पर झूठ भी नहीं  दिल ने तुम्हें बिना किसी संशय  हमेशा निश्छल ही चाहा है, बड़ी मेहनत से बदला है रोज़ पानी  तब जाकरContinue reading “तीन डंठलों वाला पौधा”

मासूम

मुख़ालफ़त हमसे करते इश्क़ तो मासूम थासज़ा ज़ुबाँ को देते दिल तो बेचारा मासूम था तुम्हारे तग़ाफ़ुल से मर गया जो जीते जीकह दो तुम ही वो शख़्स नहीं मासूम था भूल के सब दुनियादारी जिसने किया इज़हारलबों को बंद रखने वाला वो शख़्स मासूम था तुम बड़े बन गये सब से कह कर बड़ीContinue reading “मासूम”