खाली सुबह

आज,न सूरज हैन हवा हैन रोशनी हैन सुख हैन दुःख है न सफलता हैन असफलता हैन साँसें हैंन मृत्यु हैन ही तुम हो;आज सुबह खाली है-जिसमें सब निरन्तर गिरा जा रहा है,अब इच्छा हैकहीं तो ज़मीन मिलेथके हुये पैरों कोचोटिल आत्मा को। – अशान्त

निराकार

जब प्रेम हमारा निश्छल था  फिर क्यों न वो साकार हुआ, न रूंदन था न क्रंदन था  फिर भी न कुछ आकार हुआ।  निज तप में तप कर हम दो  जब हुये थे उस पावन क्षण एक,  न मिले हाथ पर हृदय मिले दो  भाव प्रस्फुटित हुये थे अनेक।    उस क्षण कहा था कण-कणContinue reading “निराकार”

किस्मत

ऐ हवा तू हर दम घुली हुयी है उनकी साँसों में काश! मेरी साँसों की किस्मत तुझ सी होती ऐ अब्र तेरा क्या तू जब चाहे बरस पड़ाकाश! मेरी आँखों की किस्मत तुझ सी होती ऐ क़लम तू क्यों छूती है उनकी उंगलियाँकाश! मेरे हाथों की किस्मत तुझ सी होती ऐ मौसिक़ी तेरा तार्रुफ़ हैContinue reading “किस्मत”

गमन

शेखर, जिन्हें आप पहले भी पढ़ चुके हैं, उन्होंने किसी एक जगह से गमन पर साथ में और क्या क्या जाता है और मन क्या क्या सहता है उसे सहजता से शब्दों में उतार दिया है। यह कविता स्मृतियों के माध्यम से भावों का गमन है…. सामान बाँध लिया है मैंनेकुछ बक्से में रख लियाContinue reading “गमन”

हरसिंगार

तुम प्रेम होतुम हरसिंगार का फूल हो;खिलते हो कुछ देरपर जीवन महका जाते हो रात तलक खिलते होसुबह ज़मीं बर्फ़ कर जाते हो,बिन कर तुमको हाथों सेकिया आंखों से आलिंगनपूजा की थाली में रखाआस्था का तुम निज आभूषण। हमसफ़र हरसिंगार काबन पाना बहुत ही मुश्किल हैकहना किसी को अपनाअपनाना बहुत ही मुश्किल है,अविवेकी प्रेम हूँContinue reading “हरसिंगार”

शहद

शहद की एक बूँदजो अपने धड़े से जुड़ी हुयीखिंचती ही चली जा रही थीआज ज़मीन पर गिर गयी,एक बच्चे ने चखा तो पायावो अब मीठी नहीं थी-थी तो बस एक निःस्वाद बूँद,कौन कह सकता हैउसे कभी भौंरे घेरे रहा करते थे! हमेशा के लिये भीड़ में एक आदमी खो गयासुनने में आया है-उसे बचपन मेंContinue reading “शहद”

रूठी कोयल

रोज़ एक कोयल आती थी छत परले कर कुछ तिनके कुछ दानेरोज़ जी उठता था बचपनजब गाती थी वो कोकिल गाने;जब से सूख गये सब नैनाअब उसका कोई अपना है नतब से वो नहीं आतीवो क्या अब हवा भी नहीं गाती;जब भाव का कोई प्रभाव नहींप्रेमहीन उसका स्वभाव नहींजितना भी बोलो दाने डालोपर अब वोContinue reading “रूठी कोयल”

अपना शहर

अपने लिये कुछ भी नहीं छोड़ रहामैं अपने ही शहर में सब से मिल कर खुद को खोज रहामैं अपने ही शहर में बरगद पर लिपटी यादें देख रहामैं अपने ही शहर में पुरानी किताबों में नयी कहानी ढूँढ़ रहामैं अपने ही शहर में दीवारों पर तुम्हारी उंगलियाँ मैं छू रहामैं अपने ही शहर मेंContinue reading “अपना शहर”

कौन हूँ मैं?

पन्नों पे बिखरी स्याही देख के एक दिनख़्याल कहीं से कुछ आया ऐसाक्या ये लिखावट मेरी ही है?क्या मैंने ही लिखी थी ये कहानी?फिर कुछ डर ऐसा आया दिल मेंजो अनजाना हो बैठा मैं खुद सेपूछ बैठा फिर कुछ खुद ही खुद सेआख़िर, कौन हूँ मैं? किताबों में रंगी हुयी लाइनेंपीले पड़ गये पुराने नोट्सडायरीContinue reading “कौन हूँ मैं?”

मन

बाहर का सब सचबन्द आँखों से अंदर ही दिखाई देता हैसब लिख जाता है सरकारी रजिस्टर परअधकचरी भाषा में-न कोई विन्यासन कोई व्याकरण;आज कोशिश की उसी को पढ़ने कीकोई पक्षपात न हो इसलियेनज़र का चश्मा भी उतार दिया पर कुछ मिनटों में ऊब गया दिलकभी कुछ समझ न आयासमझ आया तो खुद को न भायाऔरContinue reading “मन”