मैं प्रेम के लिये किसी भी एक दिवस निर्धारण वाले विचार से सहमत नहीं हूँ। लेकिन बाज़ार की रवायत का कुछ असर मुझ पर भी पड़ना लाजिमी है। और इसी क्रम में इस तथाकथित “प्रेम सप्ताह” में जिस में हर एक दिन का कुछ नाम है, मैं प्रेम, जो कि सभी भावनाओं का सार है उसContinue reading “दोहे प्रेम के”
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"ऋचांकित" तुम्हारा प्यार!
अपने प्रिय मित्र अंकित के विवाह के अवसर पर ये कविता लिखी है। प्रेम जैसे पूर्ण भाव को शब्दों में तो व्यक्त नहीं किया जा सकता, किन्तु अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति का यह एक भावनात्मक प्रयास है जिसे व्यक्ति-विशेष के अथवा भी समर्थन प्राप्त हो सकता है। इसी प्रत्याशा में ये पंक्तियाँ अंकित और उसकी सहभागिनी ऋचा को आजीवन प्रसन्नताContinue reading “"ऋचांकित" तुम्हारा प्यार!”
दूसरी है
फूल वही है,पर मेरी नज़र दूसरी है। ओस वही है,पर मेरी छुअन दूसरी है। शब्द वही हैं,पर मेरी सोच दूसरी है। लक्ष्य वही है,पर मेरी लगन दूसरी है। पूजा वही है,पर मेरी आस्था दूसरी है। जीवन वही है,पर मेरी उपस्थिति दूसरी है। -प्रशान्त
मृत्यु
मृत्यु सत्य है,किन्तु तभीजब वह प्राकृतिक हो,अन्यथा है वोएक भद्दा नाटकजिसे खुद हीलिखा-निर्देशितकिया गया हो,जिसे देखा भी होतुमने अकेलेऔर किया हो अकेले हीवो अंतिम अभिनय,समाप्त हो गया जिसके बादसब कुछ,रह गया खाली सभागारजिस में बैठ करतुम खुद के लिये,ताली भी ना बजा सके! -प्रशान्त
दंगा
जो हुआ है हलाल पिछले चौराहे पर, ना हिन्दू था ना मुस्लिम था और, ना ही कोई मुर्गा था जिसे मारा गया लेने को स्वाद; वो ठंडी बे-मज़हब लाश है सबूत, उस फ़िल्म का जो चली थी पिछली रात जिसका टाइटल “दंगा” था। -प्रशान्त
बिना दाग़ वाला चाँद
शायद मैने सुबह देखा था उसे, इसीलिये मुझे लगा वो बिना दाग़ वाला चाँद रोज़ सूरज छुपा देता था उसे, आज डाँक कर दूसरी छत से देखा तो पाया ना उसमें कोई दाग़ नहीं कोई परेशानी मुझे दाग़ से, टी.वी. वाले ऐड की तरह इसके भी दाग अच्छे हैं बस रात के कमज़ोर लम्हों में, कभी-कभी होContinue reading “बिना दाग़ वाला चाँद”
तुम्हारी पीठ पर
प्रकृति के नैसर्गिक कोष सेतुमने,पायी है जो सोने सी काया,उस प्रेम-पृष्ठ पर स्याही सेकभी कोई “टैटू ” ना गुदवाना,बस,हो सके तो सहेज लेना तुम,उन हस्ताक्षर कोजो अपनी उंगली सेकभी किये थे मैंनेतुम्हारी पीठ पर। -प्रशान्त
कल, फिर क्यों तुम्हारी याद आयी?
सब कुछ रोज़ के जैसा थादेर से उठ कर देखा तोसूरज कुछ धीमा-धीमा था!कल, फिर क्यों तुम्हारी याद आयी? पढ़ रहा आज-कल मैं जिसेप्रथम-पृष्ठ उस पुस्तक का देखा तोपाया, तुम्हारी लिखाई में लिखा मेरा नाम!कल, फिर क्यों तुम्हारी याद आयी? अधपकी सी नवम्बर की सर्दीउस पर अधखुला मेरा कम्बलपल भर में जैसे तुमने मुझको समेट लिया!कल, फिरContinue reading “कल, फिर क्यों तुम्हारी याद आयी?”
वो भी हैं अंग तुम्हारे
ओ प्रियतमा! मत नोचवाओ तुम अपने बाल, वो भी हैं अंग तुम्हारे प्रतीक तुम्हारे स्वातंत्र्य का। मैं प्रियतम भी फिर कैसा सच्चा प्रेमी हूँ? अगर आधार मेरे प्रेम का नहीं है तुम्हारे भाव पर वो चिकनी चमड़ी है, पाने जिसको तुम्हें जाना पड़ता है छोड़ अपना प्रेमालय उस बाज़ार, जहाँ प्रेम मात्र कार्ड में पढ़ने-बिकनेContinue reading “वो भी हैं अंग तुम्हारे”
मैं शांत हूँ आज
मैं शांत हूँ आज पर थका नहीं हूँ मेरा बिस्तर पर लेटना मेरी कमज़ोरी नहीं मेरी मजबूरी है, क्योंकि कोई और बहाना मिलता नहीं थके दिमाग को आराम देने का। आँखें आख़िरी बार बंद की हैं मैंने, आराम के साथ खुद को पहचान सकूँ जिससे, खोलूँगा जब इस बार वे बंद नहीं होंगी फिर कम से कमContinue reading “मैं शांत हूँ आज”