रंग डालो मेरे राम

फाल्गुन में नयी बयार चलीकलियाँ नये रंगों में खिली,हृदय आज सब उल्लसित हैंकुछ ऐसे हैं जो विचलित हैं,मैं कब से बेरंग बैठा हूँमुझ पर भी रंग डालो राम। पैदा हुआ था जब मैंकोई मेरा रंग न था,भाव-प्रणय सब देखा मैंने जीवन-समर सब देखा मैंने,मैं अब भी बेरंग बैठा हूँमुझ पर भी रंग डालो राम। सफलContinue reading “रंग डालो मेरे राम”

मछली

आज मुझेआइंस्टाइन की वो मछली मिल गयीजिसे उन्होंने किया था मनापेड़ पर चढ़ने से;वो नहीं चढ़ी थी पेड़ पर उस दिनवो आज भी पड़ी है वहीँउसे न पानी मिलान कोई तैरने का मूल्यांकन करने वाला। आज सुबह अखबार में ख़बर आयी हैपरीक्षा में फेल होने पर छात्र ने की आत्महत्या, औरमछली भी मर गयी उसकेContinue reading “मछली”

बेकार आदमी

वो आगे नहीं बढ़ सकताक्योंकि उसे दोहराना नहीं आता!अक्षम्य है वो मनुष्यजिसने घिसे पिटे सिद्धान्तों कीपुनरावृत्ति नहीं की,क्योंकि किसी भी परीक्षा मेंवो प्रथम नहीं आ सकता। पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमीहोता हैस्टोर रूम में पीछे रखी हुयी एक चीज़जो महत्वपूर्ण है,पर रहती है अँधेरे मेंडूबी हुयी सीलन मेंसाल में एक बार दीवाली परझाड़-पोंछ कर उसेफिरContinue reading “बेकार आदमी”

आधार

क्या है मेरी रचना का आधार?वो एक बिंदु जिससे निकला सारा विश्व,या मेरा कर्मजो मिला बदल के बार बार,या फिर वो अधूरा प्रेमजो मिला नहीं हर बार! जो भी होआधार होना चाहिये;टिक पाती हैबिना नींव की इमारततभी तकजब तक पड़ता नहीं भार,भारी हो जाता है जीवनअकर्मण्यता-जनित असफलता से,इसलिए जीवन काआधार होना चाहिये। -प्रशान्त

मैं तुम्हे देख रहा हूँ

तुम्हे पता है क्या?तुम्हारी खिड़की से झांकता चाँदमेरा जासूस है। जब सो जाती हो तुमतब वो बताता है मुझकोकिस करवट लेटी हो तुम,मैं भी वैसे बदल लेता हूँ करवटसुनते हैं सच हो जाती हैजो हुयी नहीं अब तकऐसी तकदीरें भी। इसलिये,मैं पास हूँ या नहींजब कभी दिखाई दे चाँदसमझ लेना,मैं तुम्हें देख रहा हूँ! -प्रशान्त

नया सफ़र

पाँव सुन्न हैंदिमाग भी,पिछले कई सालों सेकुछ बदला ही नहींअब सपने भी लगे हैं दोहरानेखुद को,शायद ज़रूरत है मुझेनये सफ़र की। इंसान ढूंढ़ता हैनये सहारेजब ढह जाती हैंबनी बनायी इमारतें,मेरे भी रिश्ते मेरे शहर मेंछूट गयेदोनों में कोई एक तो गलत था। नया सफ़र कुछ और नहींबहाना है ख़ुद से लड़ने काक्योंकि कुछ मिला नहींपुरानीContinue reading “नया सफ़र”

भटकाव

बात कुछ साल पहले की हैमैं भी निकला था घर सेमंज़िल की तरफ़पर वहाँ कभी पहुँचा नहीं,ढूँढ़ रहा है मुझे कोई आज वहाँकौन है वो?पता नहीं!सुना है,आत्मायें भूलती नहींभटक जाती हैं। मैं चल रहा हूँया भटक रहा हूँ? -प्रशान्त

सर्द गिलहरी

मेरा दोस्त कहा करता था मुझसेसर्दी मौसम है सुस्त लोगों कामैंने भी बोला था बचपने मेंमुझे सर्दी पसंद है,कहते हैं लोगसर्दी मौसम है डिप्रेस्ड लोगों कामुझे डिप्रेशन भी है! पर, वो गिलहरीजो उतरी थी पेड़ों सेमेरे गमले के पासकुतर रही थी मूँगफलीजो फिसली थी पिछली रातमेरे काँपते हाथोँ से;कभी कभी ज़िन्दगीफ़िसल जाती हैआँसू जमी काईContinue reading “सर्द गिलहरी”

मेरा सूरज

खिड़कियाँ खुली रखनी चाहियेसर्दी में भीक्या पता उड़ के आ जायेकोई ओस से भीगा फूल। चाहे कितनी भी गहरी हो ज़िन्दगी में धुंधउसे हारना ही है एक दिनकिसी न किसी सूरज से। मुझे पता हैमेरा सूरज कहाँ हैमैं नदी के इस पारउसका इंतज़ार कर रहा हूँउसने कहा था मुझसेवो ज़रूर आयेगा एक दिन। -प्रशान्त

मेरी भी नज़र में

मोबाईल की स्क्रीन पर देखते देखतेकुछ यूँ हँसी तुम्हारी आँखेंएक मुस्कुराहट दौड़ सी गयीमेरी भी नज़र में वो सपनों के नगर मेंएक छोटे से कोने मेंयूँ बेफ़िक्र लेटे थे तुमदुनिया ही मिल गयी होतुम्हें मेरी नज़र में क्यों फ़िदा हर अदा इश्क़ क्यों इतना अलहदाकोहरे सी उड़ती तुम्हारी शख़्सियत जैसेजम गयी हो मेरे बदन पेContinue reading “मेरी भी नज़र में”