दुःस्वप्न

मुँह में दाँत नहीं हैंरोटी भाग रही हैछत उड़ रही हैनींव डूब गयी हैबैंक पैसे निगल रहा हैआलस प्रखर हैशब्द खो गये हैंहँसी सो गयी हैरूंदन जग रहा हैस्मृतियाँ आतातायी हैंनींद विरक्त हैमन अनुरक्त हैप्रेम अनाथ हैतुम भी नहीं हो;जीवन एक दुःस्वप्न हैएक तसल्ली है बसजैसा भी हैएक स्वप्न है! – प्रशान्त

The Morning after Love

He sensed her from a distance but never went closeShe snuggled in the assurance of his charm up closeNot a word was spoken or would ever be spokenShe gestured from her eyes-” I want to melt in your arms;”He still waits for her while took not a moment to leaveNo one has yet melted inContinue reading “The Morning after Love”

काला काँच

रात की काली चादर पर नाम तुम्हारा बनाना है तुम्हारे दिल की दुनिया में छोटा सा घर बनाना है प्यार हमेशा था मुश्किल मज़हब एक बहाना है किसे महलों की दुनिया में घर मिट्टी का बनाना है   कोनों पर रहते हैं जो पूँछ उनकी कुछ नहीं बहुत कुर्बान हुये आशिक़ अब ज़ाहिद बनाना है जबContinue reading “काला काँच”

अनजान शहर

उस अनजान शहर कीअनजान गली मेंबीच के एक घर मेंजो न मेरा था न उसकाबंद था सब,सिवाय उस खिड़की केजिस से छन करधीमी होती सूरज की किरणउसके चेहरे पर पड़ करफिर से ज़िंदा हो जाती थी ,उस मुलाकात की तरहजिसे होना बहुत पहले थापर हुयी आज थी। वो दे देती थी भ्रमजीवन काउस भावना कोजोContinue reading “अनजान शहर”

आठ गुना आठ

आठ गुना आठ का कमरा,कोने में रखी मेज़जिस पर फैली हैसालों की मेहनतजिसका न तो कोई रंग हैन कोई आकारऔर न ही कोई अस्तित्व;बेतरतीब सी चिढ़ाती हैउसके अस्तित्व को जोबिस्तर पर पड़ा हुआ पन्नों और सपनों मेंझूल रहा है। आख़िर क्यों है इतना कठिनउस खुले दरवाज़े से भाग जानान जाने किसने रस्सी सेकिस पाये सेउसकेContinue reading “आठ गुना आठ”

काला काँच

रात की काली चादर पर नाम तुम्हारा बनाना हैतुम्हारे दिल की दुनिया में छोटा सा घर बनाना है प्यार हमेशा था मुश्किल मज़हब एक बहाना हैकिसे महलों की दुनिया में घर मिट्टी का बनाना है  कोनों पर रहते हैं जो पूँछ उनकी कुछ नहींबहुत कुर्बान हुये आशिक़ अब ज़ाहिद बनाना है जब बोसे की बातContinue reading “काला काँच”

प्रश्न

जीवन श्रृंखला है प्रश्नों कीजिनके उत्तर पता नहींखोज नहीं थी उनकी जब तकतब तक सब सही था-सरल,सपाट,प्रत्याशित! फिर एक क्षण उभरा एक प्रश्नपुस्तक के अंतिम पृष्ठों परढूँढे मैंने उत्तर, हताश!सारे पृष्ठ सादे थेसब स्वप्न भी आधे-आधे थे। फिर मैं चींटी बन करचल पड़ा सीधी लकीरों परएक के पीछे एक निर्बाधित;कि किसी ने आटा डालकरभटका दियाContinue reading “प्रश्न”

I matter no more

The lines on your bodyWere written by my touch,When you will grow oldThe wrinkles on your cheekWill be relic of early morn caress Which I could only do once. Oh dear! You chose to leave meLike the winter SunLittle warm little unsatisfiedThe sultry glint of your eyesStill exists as embers in my heartI wish IContinue reading “I matter no more”