Together on this boat we sailReconciling the life so frailNeither a friendNor a foeWhat we are?We do not know! Its such a fun to be nescientExploring all that comes our wayGetting to knowThat we never knewFinding all inside usThat was never seen;Playing the game with no rulesWorking hard,making no foolsNurturing our desires to a pointWhettingContinue reading “Together on this boat we sail!”
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दंगा
जो हुआ है हलाल पिछले चौराहे पर, ना हिन्दू था ना मुस्लिम था और, ना ही कोई मुर्गा था जिसे मारा गया लेने को स्वाद; वो ठंडी बे-मज़हब लाश है सबूत, उस फ़िल्म का जो चली थी पिछली रात जिसका टाइटल “दंगा” था। -प्रशान्त
बिना दाग़ वाला चाँद
शायद मैने सुबह देखा था उसे, इसीलिये मुझे लगा वो बिना दाग़ वाला चाँद रोज़ सूरज छुपा देता था उसे, आज डाँक कर दूसरी छत से देखा तो पाया ना उसमें कोई दाग़ नहीं कोई परेशानी मुझे दाग़ से, टी.वी. वाले ऐड की तरह इसके भी दाग अच्छे हैं बस रात के कमज़ोर लम्हों में, कभी-कभी होContinue reading “बिना दाग़ वाला चाँद”
तुम्हारी पीठ पर
प्रकृति के नैसर्गिक कोष सेतुमने,पायी है जो सोने सी काया,उस प्रेम-पृष्ठ पर स्याही सेकभी कोई “टैटू ” ना गुदवाना,बस,हो सके तो सहेज लेना तुम,उन हस्ताक्षर कोजो अपनी उंगली सेकभी किये थे मैंनेतुम्हारी पीठ पर। -प्रशान्त
कल, फिर क्यों तुम्हारी याद आयी?
सब कुछ रोज़ के जैसा थादेर से उठ कर देखा तोसूरज कुछ धीमा-धीमा था!कल, फिर क्यों तुम्हारी याद आयी? पढ़ रहा आज-कल मैं जिसेप्रथम-पृष्ठ उस पुस्तक का देखा तोपाया, तुम्हारी लिखाई में लिखा मेरा नाम!कल, फिर क्यों तुम्हारी याद आयी? अधपकी सी नवम्बर की सर्दीउस पर अधखुला मेरा कम्बलपल भर में जैसे तुमने मुझको समेट लिया!कल, फिरContinue reading “कल, फिर क्यों तुम्हारी याद आयी?”
वो भी हैं अंग तुम्हारे
ओ प्रियतमा! मत नोचवाओ तुम अपने बाल, वो भी हैं अंग तुम्हारे प्रतीक तुम्हारे स्वातंत्र्य का। मैं प्रियतम भी फिर कैसा सच्चा प्रेमी हूँ? अगर आधार मेरे प्रेम का नहीं है तुम्हारे भाव पर वो चिकनी चमड़ी है, पाने जिसको तुम्हें जाना पड़ता है छोड़ अपना प्रेमालय उस बाज़ार, जहाँ प्रेम मात्र कार्ड में पढ़ने-बिकनेContinue reading “वो भी हैं अंग तुम्हारे”
मैं शांत हूँ आज
मैं शांत हूँ आज पर थका नहीं हूँ मेरा बिस्तर पर लेटना मेरी कमज़ोरी नहीं मेरी मजबूरी है, क्योंकि कोई और बहाना मिलता नहीं थके दिमाग को आराम देने का। आँखें आख़िरी बार बंद की हैं मैंने, आराम के साथ खुद को पहचान सकूँ जिससे, खोलूँगा जब इस बार वे बंद नहीं होंगी फिर कम से कमContinue reading “मैं शांत हूँ आज”
जब कभी भी जाना
जब कभी भी जाना तो मार देना मेरे प्रेम को भी, मैं नहीं चाहता अब तक था जो मेरे अन्दर सबसे सुन्दर रूप वो बने कभी भी कुरूप। कब तक करूंगा धारण मैं सभ्यता की भारी पोशाक, मैं नहीं चाहता वीभत्स हो कभी भी मेरी अभिव्यक्ति रचे हैं मैंने जिस से प्रेम-गीत अनूप। पर,Continue reading “जब कभी भी जाना”
मोहब्बत चीज़ पुरानी थी
मोहब्बत चीज़ पुरानी थीअब उसका ना कोई मोलनये दौर के इश्क़ काब्राण्ड कुछ अलहदा है,ठीक चवन्नी वाली टाफी की तरहजो ‘नये रैपर’ मेंअब दस रुपये में मिलती है,पहले मिलती थीजो दूर बस एक दुकान परआज गली-गली में बिकती हैपाना है जिसको आसानपर स्वाद करना मुश्किल हैअब पैसों के बिना कहाँसच्ची खुशियाँ मिलती हैं। -प्रशान्त Continue reading “मोहब्बत चीज़ पुरानी थी”
ग़रीबी
ग़रीबी शरीर ही नहीं दिमाग भी खा जाती है जैसे कोई बिना जीभ का आदमखोर राक्षस जो स्वाद नहीं लेता बस निगल जाता है यूं ही। निगले जाते हैं सपने भी हर रोज़ करोड़ों के सिर्फ़ इस कारण कि वो ग़रीब थे। -प्रशान्त