शेखर (परिचय के लिये क्लिक करें) ने शहरी परिदृश्य में प्रेम को अपने सुंदर शब्दों के माध्यम से टटोला है। ऐसा प्रेम जिसमें चाँद-तारे तोड़ने के वादे नहीं पर घडी की टिक-टिक गिनने की सहजता है। ऐसा प्रेम जो तार्किक है और किया जा सकता है, सिर्फ सोचा नहीं जा सकता। इसी यथार्थपरकता के भाव केContinue reading “बेरोज़गार इश्क़”
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जब तुम मिल जाती हो
तुम नसीम सी हो मन महक जाता है जब तुम मिल जाती हो। तुम दुआ सी हो बला टल जाती है जब तुम मिल जाती हो। तुम धागे सी होभावों की तुरपन हो जाती हैजब तुम मिल जाती हो। तुम चीनी सी होशाम मीठी हो जाती हैजब तुम मिल जाती हो। तुम सुरों सी होज़िंदगीContinue reading “जब तुम मिल जाती हो”
मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?
मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?क्या माँगना स्वाभिमान है?एक मध्य-वर्गीय शोषित हूँ मैंमेरी हड्डियाँ नहीं गली हैंमेरे पीठ-पेट नहीं हैं एकमेरा कमरा किताबों सेफ़ोन कई छूटी कालों सेघर आशावान घरवालों सेजीवन सपनों की शैवालों सेपूरी तरह भरा है,पर मेरा ह्रदयमेरी आत्मामेरा मन, सब खाली है!नितांत एकांत का सन्नाटाजहाँ मुझे कोई नहीं पहचानता,मैं, स्वयं भी नहीं।Continue reading “मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?”
तीन डंठलों वाला पौधा
तुम्हारे दिये पौधे में बस तीन डंठलें बची हैं, सब दिखता है शीशे के गमले के आर-पार इसलिये उस में नहीं जमा होने दी कभी कोई गन्दगी; दावा तो नहीं है पर झूठ भी नहीं दिल ने तुम्हें बिना किसी संशय हमेशा निश्छल ही चाहा है, बड़ी मेहनत से बदला है रोज़ पानी तब जाकरContinue reading “तीन डंठलों वाला पौधा”
मासूम
मुख़ालफ़त हमसे करते इश्क़ तो मासूम थासज़ा ज़ुबाँ को देते दिल तो बेचारा मासूम था तुम्हारे तग़ाफ़ुल से मर गया जो जीते जीकह दो तुम ही वो शख़्स नहीं मासूम था भूल के सब दुनियादारी जिसने किया इज़हारलबों को बंद रखने वाला वो शख़्स मासूम था तुम बड़े बन गये सब से कह कर बड़ीContinue reading “मासूम”
जीवन एक विडंबना है
जीवन एक विडम्बना है-सफ़ेद सुन्दर है शांत है बाहरबूढ़ा है,बदसूरत है बाल पर;लाल क्रान्ति है प्रेम हैशरीर से निकले तो हिंसा है;काला सोखता है सब प्रकाशअदालत में काले की ही सत्ता है;जीवन जब तक हाँ में हाँ हैतब तक जीवन हैप्रश्न और विरोध के आते हीजीवन एक विडंबना है। – प्रशान्त
दुःस्वप्न
मुँह में दाँत नहीं हैंरोटी भाग रही हैछत उड़ रही हैनींव डूब गयी हैबैंक पैसे निगल रहा हैआलस प्रखर हैशब्द खो गये हैंहँसी सो गयी हैरूंदन जग रहा हैस्मृतियाँ आतातायी हैंनींद विरक्त हैमन अनुरक्त हैप्रेम अनाथ हैतुम भी नहीं हो;जीवन एक दुःस्वप्न हैएक तसल्ली है बसजैसा भी हैएक स्वप्न है! – प्रशान्त
काला काँच
रात की काली चादर पर नाम तुम्हारा बनाना है तुम्हारे दिल की दुनिया में छोटा सा घर बनाना है प्यार हमेशा था मुश्किल मज़हब एक बहाना है किसे महलों की दुनिया में घर मिट्टी का बनाना है कोनों पर रहते हैं जो पूँछ उनकी कुछ नहीं बहुत कुर्बान हुये आशिक़ अब ज़ाहिद बनाना है जबContinue reading “काला काँच”
अनजान शहर
उस अनजान शहर कीअनजान गली मेंबीच के एक घर मेंजो न मेरा था न उसकाबंद था सब,सिवाय उस खिड़की केजिस से छन करधीमी होती सूरज की किरणउसके चेहरे पर पड़ करफिर से ज़िंदा हो जाती थी ,उस मुलाकात की तरहजिसे होना बहुत पहले थापर हुयी आज थी। वो दे देती थी भ्रमजीवन काउस भावना कोजोContinue reading “अनजान शहर”
आठ गुना आठ
आठ गुना आठ का कमरा,कोने में रखी मेज़जिस पर फैली हैसालों की मेहनतजिसका न तो कोई रंग हैन कोई आकारऔर न ही कोई अस्तित्व;बेतरतीब सी चिढ़ाती हैउसके अस्तित्व को जोबिस्तर पर पड़ा हुआ पन्नों और सपनों मेंझूल रहा है। आख़िर क्यों है इतना कठिनउस खुले दरवाज़े से भाग जानान जाने किसने रस्सी सेकिस पाये सेउसकेContinue reading “आठ गुना आठ”