बुरा हूँ बहुत

बुरा हूँ बहुत बुरा पर न चाहा कभीलफ्ज़ बोले नहीं पर कतरा समाया सभीइसी आस में हमने बहाये न आँसूसाथ गंगा के बह न जाये जज़्बे सभी बात निकली थी जो दिल से कभीदेखी कुछ थीं या पढ़ी थीं सभी?इसी आस में हमने कुछ न कहापहुँचेगी तुम तक यूँ ही कभी सामने थे तुम जबContinue reading “बुरा हूँ बहुत”

चलो इश्क़ महकायें

चलो इश्क़ महकायें  उस ख़ुशबू की तरह  न बंद हो जो बोतल में  बस ठहर जाये  उस लम्हे की तरह  जो रहेगा आज और कल  एक सा  तुम्हारी-मेरी तरह।  इत्तेफ़ाकन खो भी जाये इश्क़ कभी  पहचान लें हम उसको  जैसे पुरानी डायरी में दबी लाइन  महक रही है जो  मोहब्बत से इतने सालों बाद भी Continue reading “चलो इश्क़ महकायें”

अब भी तेरे इंतज़ार में बैठे हैं

जो धड़क उठे वो दिल ही क्याहम तेरी आरज़ू में बेहाल बैठे हैंसुन्न सब अब कुछ लगता नहींअब भी तेरे इंतज़ार में बैठे हैं परस्तिश तुम्हारी नूरी निगाहों कीमोहब्बत थी मुरव्वत नहींचुप रहना नहीं बेशिकवा होनासारे मुंसिफ़ क्यों चुप बैठे हैं आशिकी का करम है येजीना भी एक अदा बन जाती हैजी लिया हमने भी जैसे तैसेऐ क़ज़ाContinue reading “अब भी तेरे इंतज़ार में बैठे हैं”

बहुत दिनों से

बहुत दिनों सेमैंने देखा नहीं तुमकोऔर ना हीसुनी तुम्हारी आवाज़पर,एक छाया धुंधली सीहै रेखांकित कहीं मन मेंजिसमें दिख तो नहीं रहीपर खुल के खिलखिला रही हो तुम। नहीं है उस छवि मेंउत्तेजना का आवेगऔर ना हैगर्मी प्रतिस्पर्धा की,वो जो संचित है छवि तुम्हारीचेहरा दिखता नहीं तुम्हारापर है उसमें आभा शीतलता की। क्यों आवश्यक है?सृजन किसी सम्बन्ध कानिजताContinue reading “बहुत दिनों से”

दोहे प्रेम के

मैं प्रेम के लिये किसी भी एक दिवस निर्धारण वाले विचार से सहमत नहीं हूँ। लेकिन बाज़ार की रवायत का कुछ असर मुझ पर भी पड़ना लाजिमी है। और इसी क्रम में इस तथाकथित “प्रेम सप्ताह” में जिस में हर एक दिन का कुछ नाम है, मैं प्रेम, जो कि सभी भावनाओं का सार है उसContinue reading “दोहे प्रेम के”

"ऋचांकित" तुम्हारा प्यार!

अपने प्रिय मित्र अंकित के विवाह के अवसर पर ये कविता लिखी है।  प्रेम जैसे पूर्ण भाव को शब्दों में तो व्यक्त नहीं किया जा सकता, किन्तु अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति का यह एक भावनात्मक प्रयास है जिसे व्यक्ति-विशेष के अथवा भी समर्थन प्राप्त हो सकता  है।  इसी प्रत्याशा में ये पंक्तियाँ अंकित और उसकी सहभागिनी ऋचा को आजीवन प्रसन्नताContinue reading “"ऋचांकित" तुम्हारा प्यार!”

मोहब्बत चीज़ पुरानी थी

मोहब्बत चीज़ पुरानी थीअब उसका ना कोई मोलनये दौर के इश्क़ काब्राण्ड कुछ अलहदा है,ठीक चवन्नी वाली टाफी की तरहजो ‘नये रैपर’ मेंअब दस रुपये में मिलती है,पहले मिलती थीजो दूर बस एक दुकान  परआज गली-गली में बिकती हैपाना है जिसको आसानपर स्वाद करना मुश्किल हैअब पैसों के बिना कहाँसच्ची खुशियाँ मिलती हैं। -प्रशान्त    Continue reading “मोहब्बत चीज़ पुरानी थी”

वो डोर कहाँ टूटी ही थी

वो डोर कहाँ टूटी ही थीजिसको तुम टूटा जान रही होवो बात कहाँ भूली ही थीजिसको तुम भूला मान रही होऔर कहाँ बदला था कहीं कुछजिसको तुम बदला मान रही होसाल दो साल होते ही क्या हैंसोचो तो बहुत सोचो तो ना कुछकुछ याद करो उन परिंदों कोजो उड़े थे घर से संगम की तरफऔर बिछड़े थे बीचContinue reading “वो डोर कहाँ टूटी ही थी”

प्रेम सुन्दर था

प्रेम सुन्दर था  बंधा मन की सीमाओं में,  धृष्टता कर लाँघा उसको  पहुंचा शरीर के पास  जहां देकर क्षणिक सुख  उसको नोचा खसोटा गया, फिर फेंक दिया बहुत दूर  मिटा दिए सारे तथ्य, बंद है प्रेम आज अपने  ह्रदय के कारागार में   शून्य सा  भावनाहीन,लज्जित,बिखरा हुआ  डरा हुआ   बलात्कारी ह्रदय से झांकता हुआ  समय कीContinue reading “प्रेम सुन्दर था”

Wrapper of Alpenliebe

Adolescence captures the essence of love,as every move made towards it at this age, is genuinely novel in its attribute. Earth outside was smelling of rain that evening.Temperature had dipped marking the start of winter.Everyone in the classroom was shivering as clothing failed to cope the unexpected fall in temperature.Sitting in the first row,she wasContinue reading “Wrapper of Alpenliebe”