प्रेमी मन

ये मौन प्रेम की प्रखर कल्पना
नहीं यथार्थ में सुखदायी,
प्रेम फलता है स्निग्ध स्नेह से
नहीं इसने आदर्शों की सत्ता चाही।

नैतिकता बसती है स्वत्व में
है उसमें भी सहज अहं भाव,
प्रेम निर्झर स्व के ह्रास का
द्वय का उसमें सदा अभाव।

प्रेम कहे को कह सकते हैं
सहज निबाह है बहुत कठिन,
प्रेम अगन में जले जो मन
उसके कटते नहीं है दिन।

प्रेम अग्नि है
भस्म करती सब जग बंधन,
जो नहीं समर्पण प्रियतम में
है सब, बस नहीं प्रेमी ऐसा मन!!

-अशान्त

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