खुले पैर

टूटा हुआ दिल कवितायें रच सकता है पर टूटा हुआ मन नहीं। पता नहीं दुबारा कब कविता लिखने का मन होगा जो कि प्रतिक्रियात्मक नहीं अपितु नैसर्गिक भावों कि अभिव्यक्ति होगी। तब तक शेखर लिखती रहेंगी और उनकी लेखनी आप सबसे साझा होती रहेंगी।
आसमान की ये स्याह चादर 
मेरे लिये कुछ छोटी सी पड़ गयी है 
एक छोर जो खींचता हूँ मैं मुँह ढाँपने के लिये ,
तो मेरे टखने झाँकने लगते हैं-
मेरी एड़ियों की बिवाइयाँ कंपकंपाने लगती हैं। 
जो मुँह ना ढाँपू तो ज़िंदगी बुरे सपने से आती है,
जैसे अँधेरे कोने से झांकती कोई परछाईं-
जो डराती है, सहमाती है। 
और मैं चादर में अपना मुँह छुपा कर 
उस से नज़रें बचा लेता हूँ। 
पर इधर कुछ एक-आध मुद्दत से 
चादर में मेरे पैर खुलने लगे हैं। 
– शेखर 

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