दियलिया

रेलगाड़ी ने सीटी दे दी थी। इस बार अंजलि को विदा करने कोई नहीं आया था। किसी ने न तो हाथ पकड़े थे, न बोगी की जंग लगी रेलिंग और न ही बिना छुये किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा था। सब फीका था। इस बार तो उसके आँसू भी खारे नहीं थे। आज शायद इसीलिये उसने काजल नहीं लगाया था। होठों को रंगने की शौक़ीन अंजलि ने आज होठों को सादा छोड़ दिया था। सुबह जब भी चाहे-अनचाहे उसका नाम होठों पर आ जाता था, वो लिपस्टिक नहीं लगाती थी। इन्हीं उधेड़बुन में दीवाली की छुट्टी पर उसकी लखनऊ से इलाहाबाद तक की यात्रा शुरू हो गयी। गाडी आगे बढ़ रही थी पर अंजलि का मन समय में पीछे दौड़ रहा था। बहुत तेज़।
सामाजिक सफलता के सभी मानदंडों पर खरी उतर चुकी अंजलि अंदर से खोखली हो चुकी थी। हमेशा से परिवार के बीच रही अंजलि ने कभी स्वयं से इतने प्रश्न नहीं किये थे। पिंजड़े में बंद पक्षी के लिए स्वतंत्रता किसी चुनौती से कम नहीं होती। 
“दीदी, चॉकलेट आइसक्रीम खायेंगी ?” रेल में सामान बेचने आये बच्चे ने पूछा। वो जो पीछे छूट गया था उसे भी आइसक्रीम बहुत पसंद थी। किसी यंत्र की तरह अंजलि के हाथों ने ५० का नोट बच्चे को पकड़ा दिया। छुट्टे पैसे लिये बिना ही वो आइसक्रीम खाने लगी। जो यहाँ नहीं थी, उसका चेहरा आंखों में आये पानी के कारण धुंधला हो गया। वो रोती रही और आइसक्रीम खाती रही। उसके दिल को अजीब सी ठंडक मिल रही थी। 
उसने अपने पैर फैला लिये थे। स्टेशन पीछे छूटते जा रहे थे। 
“आज ये रेल इतनी तेज़ और समय पर क्यों चल रही है?”, अंजलि ने खुद से खीझते हुये बोला। तेज़ गति से होने वाली आवाज़ उसके विचारों में व्यवधान उत्पन्न कर रही थी। 
“उसने पहली बार फोन पर क्या बोला था?” खुद से बुदबुदाते हुये उसे याद आया कि वो उस दिन कितनी खुश थी।  ऐसा लगा था जैसे किसी ने कानों में मिश्री घोल दी थी जो आज भी उसके दिल में घुली हुयी है। 
 फाफामऊ आ गया था। कुछ देर में प्रयाग आयेगा। फिर इलाहाबाद। उस सुबह तड़के ठण्ड में वो उसे सिर्फ देखने के लिये पहुँच गया था। वो बस पांच मिनट के लिये रुकी थी। आज वो नहीं आयेगा। अंजलि को खुद पर गुस्सा आ रहा था की पिछली बार उसने टैक्सी बुलाने से पहले उस से क्यों नहीं पूछा। अपनी पाक्षिक नैतिकता आज उसे खुद ढकोसला लग रही थी। 
इलाहाबाद आ गया। वो चाह कर भी सिविल लाइंस की तरफ नहीं उतरी। पुराने शहर की ओर से घर पहुँच गयी। 
“अरे बेटा, आ गयी तुम “, पापा ने झालर लगाते हुये पूछा। पिता का प्रेम एक उम्र के बाद कम पड़ जाता है। अंजलि को उसको देखने, सुनने और छूने की तीव्र इच्छा हो रही थी। बच्चों द्वारा बजाई  चुटपुटिया भी उसे झुँझला दे रही थी। 
“माँ, मैं बहुत थक गयीं हूँ , मुझे जगाना मत” यह कह कर अंजलि सो गयी। आज दिवाली थी पर अंजलि को उजाले से चिढ़ हो रही थी। 
शाम को अँधेरे के बाद भाई ने उसे जबरदस्ती उठाया। 
“अरे दीदी, उठो यार पूजा नहीं करनी क्या?” कहते हुये उसने अंजलि का हाथ खींच कर उसे उठा दिया। वो चाह कर भी मना नहीं कर पायी। 
कपडे बदलने शीशे के सामने खड़ी ही थी कि जैसे उसने आ कर अंजलि के कान में कहा – “आज पीला पहन लो!” वो अंदर से काँप गयी। 
पीले सूट में पीली लौ सी चमकती जब वो पूजा पर बैठी तो देखा कि सब दीये ख़त्म हो चुके थे। बस एक दियलिया बची थी। 
अंजलि ने अपने हाथों से उसके नाम की बाती बनायी और उसे घी में डुबो दिया। माचिस जलाते वक़्त उसका दुपट्टा दायें कंधे से फिसल गया। उसे लगा जैसे किसी ने उसके कंधे को चूमते हुये उसका दुपट्टा सही कर दिया। 
पिघलते हुये घी में अपने आँसू मिलाते हुये अंजलि ने उसके नाम की दियलिया जला दी। जिसे अंजलि ने नहीं अपनाया उसने उसे गले से लगा लिया। अंजलि को इतना सुकून कभी नहीं मिला था। न मिलेगा। दिवाली उसके लिये सिर्फ एक त्यौहार नहीं रहेगा। कभी नहीं…… 
-अशान्त 

One thought on “दियलिया

Leave a reply to Unknown Cancel reply