बहुत पहले लिखते समय पहला वाक्य
माँ ने सिखाया था पूर्ण विराम
जिसको लगाने के बाद ही
शुरू होता था नया वाक्य;
निरन्तर चलते हुये जीवन में
कुछ अर्ध-विरामों के अलावा
सब बस चलता ही रहा,
एक औपचारिकता की तरह-
भावहीन, अर्थहीन, अस्तित्वहीन।
कल जीवन के सबसे अच्छे लेखक ने
लगा दिया पूर्ण विराम-
एक सुदृढ़ सशक्त विराम,
सब हमेशा के लिये रुक गया
और हाँ, नहीं अर्थ है कोई
पूरे हुये वाक्य का!
व्याकरण की उस सीमा में
हर शब्द हर वाक्य तड़प रहा है
अब निश्चित दिखाई देता है सामने
लिखा जाना,
एक जीवन कथा का-
भावहीन, अर्थहीन, अस्तित्वहीन।
– अशान्त