शहद

शहद की एक बूँदजो अपने धड़े से जुड़ी हुयीखिंचती ही चली जा रही थीआज ज़मीन पर गिर गयी,एक बच्चे ने चखा तो पायावो अब मीठी नहीं थी-थी तो बस एक निःस्वाद बूँद,कौन कह सकता हैउसे कभी भौंरे घेरे रहा करते थे! हमेशा के लिये भीड़ में एक आदमी खो गयासुनने में आया है-उसे बचपन मेंContinue reading “शहद”

रूठी कोयल

रोज़ एक कोयल आती थी छत परले कर कुछ तिनके कुछ दानेरोज़ जी उठता था बचपनजब गाती थी वो कोकिल गाने;जब से सूख गये सब नैनाअब उसका कोई अपना है नतब से वो नहीं आतीवो क्या अब हवा भी नहीं गाती;जब भाव का कोई प्रभाव नहींप्रेमहीन उसका स्वभाव नहींजितना भी बोलो दाने डालोपर अब वोContinue reading “रूठी कोयल”

अपना शहर

अपने लिये कुछ भी नहीं छोड़ रहामैं अपने ही शहर में सब से मिल कर खुद को खोज रहामैं अपने ही शहर में बरगद पर लिपटी यादें देख रहामैं अपने ही शहर में पुरानी किताबों में नयी कहानी ढूँढ़ रहामैं अपने ही शहर में दीवारों पर तुम्हारी उंगलियाँ मैं छू रहामैं अपने ही शहर मेंContinue reading “अपना शहर”

पूर्ण विराम

बहुत पहले लिखते समय पहला वाक्यमाँ ने सिखाया था पूर्ण विरामजिसको लगाने के बाद हीशुरू होता था नया वाक्य;निरन्तर चलते हुये जीवन मेंकुछ अर्ध-विरामों के अलावासब बस चलता ही रहा, एक औपचारिकता की तरह-भावहीन, अर्थहीन, अस्तित्वहीन। कल जीवन के सबसे अच्छे लेखक नेलगा दिया पूर्ण विराम-एक सुदृढ़ सशक्त विराम,सब हमेशा के लिये रुक गयाऔर हाँ,Continue reading “पूर्ण विराम”

अकेलापन

एक खाली मेजतीन खाली कुर्सियाँएक अकेला अकेलापन-दो कुर्सियाँ ही खाली थींपिछली बार कहा था तुमने नहीं होगाकभी कोई अकेला,पर देखो न ऐसा क्यों हैपिछली बारजिसने उलझाये थे तुम्हारे बालआज उसने बस टिशू पेपर उड़ायेसच कहें? इन उड़ते काग़ज़ों मेंउड़ता रोमांस भी था। पिछली बार बड़ी मुश्किल सेछः पीले ग़ुलाबों के बीचएक लाल ग़ुलाब वालागुलदस्ता बनवायाContinue reading “अकेलापन”

छुटपन

छुटपन में सुंदर लगने वाली हर चीज़खो देती है पढ़-लिख करअपनी सुंदरता और अपने आप को। छत की सुलाईचोट की रुलाईनानी की बातटूटा हुआ दाँतबेफ़िक्री का हाथबिन बिजली की रातबचपन की रेलसाईकिल के खेल न हारने का डरन जीतने का अंतर;ये सब तो खो गया पढ़-लिख करना जाने क्या मिला बड़े हो कर! बचपन कीContinue reading “छुटपन”

ओवरब्रिज

बड़े शहर की सड़कों पररेलवे स्टेशन परहर भीड़ वाली जगह परओवरब्रिज होता है। नये-पुराने विचारधुंधली विचारधारायेंछोटे-बड़े लोगचल कर उसके कंधों पर इस पार से उस पार हो जाते हैं;काल की गतिशीलता का साक्षीओवरब्रिज एक स्थायित्व हैन वो किसी का हैन कोई उसका हैउस पर कोई नहीं रुकताचल कर उस परबस पार हो जाते हैं। शराबContinue reading “ओवरब्रिज”

मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?

मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?क्या माँगना स्वाभिमान है?एक मध्य-वर्गीय शोषित हूँ मैंमेरी हड्डियाँ नहीं गली हैंमेरे पीठ-पेट नहीं हैं एकमेरा कमरा किताबों सेफ़ोन कई छूटी कालों सेघर आशावान घरवालों सेजीवन सपनों की शैवालों सेपूरी तरह भरा है,पर मेरा ह्रदयमेरी आत्मामेरा मन, सब खाली है!नितांत एकांत का सन्नाटाजहाँ मुझे कोई नहीं पहचानता,मैं, स्वयं भी नहीं।Continue reading “मैं तुमसे क्या मांग सकता हूँ?”

तीन डंठलों वाला पौधा

तुम्हारे दिये पौधे में  बस तीन डंठलें बची हैं,  सब दिखता है  शीशे के गमले के आर-पार  इसलिये उस में नहीं जमा होने दी  कभी कोई गन्दगी; दावा तो नहीं है पर झूठ भी नहीं  दिल ने तुम्हें बिना किसी संशय  हमेशा निश्छल ही चाहा है, बड़ी मेहनत से बदला है रोज़ पानी  तब जाकरContinue reading “तीन डंठलों वाला पौधा”