सतत प्रयासों के फलित ना होने की कुंठा ही इस कविता के सृजन का कारण हैं। एक छटपटाहट है अपने तत्व को फिर से पाने की जो शायद जीवन की भूल भुलैया के किसी संकरे कोने में खो गया है। प्रशंसा, आलोचना एवं टिप्पणियाँ सादर आमंत्रित हैं। प्रतिमा खंडित है उस मंदिर की जिसे मैंनेContinue reading “पहली ईंट”
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महल की खिड़की
विकास एवं प्रगति सदैव प्रसन्नता का स्त्रोत हों,यह आवश्यक नहीं है। इस कविता में सोने की खिड़की पर बैठी चिड़िया के माध्यम से भौतिक रूप से सम्पूर्ण मनुष्य की आत्मिक अभिलाषा को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है। प्रशंसा,आलोचना एवं टिप्पणियाँ सादर आमंत्रित हैं। उस महल की खिड़की जो बनी है सोने की बैठी हैContinue reading “महल की खिड़की”
इश्क़ इलाहाबादी
बाज़ारों की इस दुनिया में जब डूबी दुनिया आधी है, जहाँ कहीं पर प्रेम कभी वादी तो कभी प्रतिवादी है, उत्तर में भारत के बसती अलग कुछ आबादी है, ज़रा गौर से पढना-समझना इसको, इश्क़ का ये ख़ालिस “ब्राण्ड इलाहाबादी” है -प्रशान्त पूरी दुनिया की तरह मेरे शहर में भी “प्यार वाला दिन”Continue reading “इश्क़ इलाहाबादी”
दोहे प्रेम के
मैं प्रेम के लिये किसी भी एक दिवस निर्धारण वाले विचार से सहमत नहीं हूँ। लेकिन बाज़ार की रवायत का कुछ असर मुझ पर भी पड़ना लाजिमी है। और इसी क्रम में इस तथाकथित “प्रेम सप्ताह” में जिस में हर एक दिन का कुछ नाम है, मैं प्रेम, जो कि सभी भावनाओं का सार है उसContinue reading “दोहे प्रेम के”
"ऋचांकित" तुम्हारा प्यार!
अपने प्रिय मित्र अंकित के विवाह के अवसर पर ये कविता लिखी है। प्रेम जैसे पूर्ण भाव को शब्दों में तो व्यक्त नहीं किया जा सकता, किन्तु अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति का यह एक भावनात्मक प्रयास है जिसे व्यक्ति-विशेष के अथवा भी समर्थन प्राप्त हो सकता है। इसी प्रत्याशा में ये पंक्तियाँ अंकित और उसकी सहभागिनी ऋचा को आजीवन प्रसन्नताContinue reading “"ऋचांकित" तुम्हारा प्यार!”
दूसरी है
फूल वही है,पर मेरी नज़र दूसरी है। ओस वही है,पर मेरी छुअन दूसरी है। शब्द वही हैं,पर मेरी सोच दूसरी है। लक्ष्य वही है,पर मेरी लगन दूसरी है। पूजा वही है,पर मेरी आस्था दूसरी है। जीवन वही है,पर मेरी उपस्थिति दूसरी है। -प्रशान्त
मृत्यु
मृत्यु सत्य है,किन्तु तभीजब वह प्राकृतिक हो,अन्यथा है वोएक भद्दा नाटकजिसे खुद हीलिखा-निर्देशितकिया गया हो,जिसे देखा भी होतुमने अकेलेऔर किया हो अकेले हीवो अंतिम अभिनय,समाप्त हो गया जिसके बादसब कुछ,रह गया खाली सभागारजिस में बैठ करतुम खुद के लिये,ताली भी ना बजा सके! -प्रशान्त
संगम
प्रस्तुत लघु-कथा एक कल्पना मात्र है। किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या किसी वस्तु से किसी भी प्रकार की समानता, मात्र एक संयोग है। लेखक का आशय किसी भी विचारधारा या मनुष्य को चोट पहुँचना कदापि नहीं है। दिसम्बर की ये सर्द सुबह लाखों आवाजों से भरी हुई थी। इंसानों का हुजूम कोहरे की घनी चादरों को हरातेContinue reading “संगम”
दंगा
जो हुआ है हलाल पिछले चौराहे पर, ना हिन्दू था ना मुस्लिम था और, ना ही कोई मुर्गा था जिसे मारा गया लेने को स्वाद; वो ठंडी बे-मज़हब लाश है सबूत, उस फ़िल्म का जो चली थी पिछली रात जिसका टाइटल “दंगा” था। -प्रशान्त
बिना दाग़ वाला चाँद
शायद मैने सुबह देखा था उसे, इसीलिये मुझे लगा वो बिना दाग़ वाला चाँद रोज़ सूरज छुपा देता था उसे, आज डाँक कर दूसरी छत से देखा तो पाया ना उसमें कोई दाग़ नहीं कोई परेशानी मुझे दाग़ से, टी.वी. वाले ऐड की तरह इसके भी दाग अच्छे हैं बस रात के कमज़ोर लम्हों में, कभी-कभी होContinue reading “बिना दाग़ वाला चाँद”