हरा स्वेटर

एक उदास सी शाम में देखी
तुम्हारी बेफ़िक्र हँसती तस्वीर
जैसे किसी ने
सर्द पैरों पर डाल दी रजाई,
आँखों की आधी दूरी तक फैला काजल
कुछ इधर कुछ उधर बिखरे खिचड़ी बाल
लोधी गार्डन की ठंडी टूटी बेंच 
यादों की अंगीठी सी सुलगा जाती है,
बुने हुये स्वेटर में छूट जाते हैं कुछ फंदे
वो इतने ही सुंदर हैं जितना
तुम्हारा परफेक्ट ना होना 
ज़िन्दगी जितना उलझी जाती है
सही ग़लत के मायनों में
मैं उतना सुलझ जाता हूँ फंदों में
तुम्हारे बुने हुये हरे स्वेटर के।
अगली बार मिलना तो
मुझे कुछ सलाइयाँ दे देना
सिखा देना कैसे बढ़ाते हैं फंदे
कैसे हाथों से बनाते हैं स्वेटर,
मैं तुम्हारे लिये बनाना चाहता हूँ
एक हरा स्वेटर जिसका हर एक फन्दा
तुम्हें संशय से, निराशा से, क्रोध से,
हर एक चिढ़ से और अप्रेम से
आज़ाद कर दे;
मेरा स्वार्थ है ये हरा स्वेटर 
जो तुम्हारे बिना पूरा नहीं हो सकता।
– अशान्त 

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