अब आम और आदमी
पहले जैसे नहीं पकते
क्योंकि नहीं पड़ती गर्मी
जैसे पड़ा करती थी बचपन में
अब या तो कच्ची रहती हैं बौर
या फिर “आत्मा” ही जल जाती है।
आज फिर असह्य उमस है
मन से टपकती ग्लानि
शरीर से बहता पसीना
दोनों ही नहीं सूखते
न जाने किस पीड़ा से गुजर कर
लेखक ने “चरित्रहीन” लिखी होगी।
कल लन्दन में फिर आतंक नाचा
लगता है ठंडक उसे भी पसंद है
व्यापार भावों को ठंडा कर देता है
पैसा रिश्तों को ठंडा कर देता है
लाइन में खड़े आखिरी आदमी को
उस कॉन्सर्ट में “बम” ने ठंडा कर दिया।
चाहे वो बौद्धिक हो या लौकिक
समरसता ही लाती है गर्माहट
प्रतियोगिता कितनी भी निष्पक्ष हो
बाज़ार जितना भी खुला हो या बंद
स्पर्धा का सदैव रहा है ये स्वधर्म
ठंडा कर देती है सभी “मूल्यों” को।
आतंक से लेकर शोषण तक
जो गर्म है मानव सभ्यता का हर राज्य
कैलाश भी तो कुछ पिघला होगा
भरा होगा नये जल से पुराना मानसरोवर
अब पुरानी हो चुकी इस दुनिया में
भला कब तक शिव तांडव नहीं करेंगे?
-प्रशान्त