कितना बदलूँ खुद को मैं
कि वैसा हो जाऊँ
जैसा मैं सच में हूँ,
ये शिकायत के कपड़े
अब पुराने हो गये हैं
ये आँसुओं की दीवारें
खोखली हो चुकी हैं
बहुत दिन हो गए
होठों को भी हंसे हुये,
कुछ तो बदलना होगा अब
कब तक घुटेगा कोई
अपनी उसी विचारधारा में
जहाँ न खुशी है न सफलता?
एक नयी पोशाक
सिलवाई है मैने कल ही,
सुना है,
बड़े होटलों में
घुसने देते हैं महँगी पोशाकों में
शायद ज़िन्दगी का कोई अनदेखा कमरा
खुल जाए मेरे लिये भी,
अब इस पुराने कमरे में
मेरा मन ऊबता है,
बदल दो मुझे जैसा चाहो
मैं अब सब जैसा
नया होना चाहता हूँ!
इस अंधी दौड़ में
नहीं खोना चाहता हूँ
दोस्तों को,अपनो को और
खुद को भी।
कल देखना मुझको
मैं बदला हुआ दिखाई दूँगा
जैसे किसी नदी ने
रास्ता बदल दिया हो।
– प्रशान्त