जब कागज़ पर बनी लंबी घासों के पीछे
आपको गाँव न दिखायी दे,
जब हर अलंकार का अर्थ ढूँढ़ा जाए
शब्दकोषो में,
जब प्रेम सिमट जाये आराम से
अर्थ-काम के कोनों में,
समझ लीजियेगा डरने लगे हैं
आप अपनी ही कल्पना से;
अभिव्यक्ति स्वतंत्र होती है
सघन जीवन-अरण्य में,
वाटिकाओं में तो बस
छद्म-श्रृंगार पुष्प खिलाये जाते हैं!
– प्रशान्त