दर्द जब भर आता है गले तक
तो साँस भी नहीं आती,
कितनी सज़ा ज़रूरी है
एक ग़लती के लिये
जो जानबूझ कर नहीं की गयी,
कितनी सांत्वना ज़रूरी है
उस प्रयास के लिये
जो सफल न हुआ,
कितना सार्थक है वो प्रेम
भौतिक रूप से
जो सफल न हुआ।
कुछ सालों पहले
एक किताबी मनुष्य ने
ग़लती की थी,
उसकी सज़ा आज भी जारी है
सांत्वना, सफलता, सार्थकता के प्रश्न
आज भी वैसे हैं
जैसे पहले थे,
बस अंतर ये है कि
उसका दर्द गले तक भर आया है
और उस से अब साँस नहीं ली जाती।
ग़लती?
जब जो जैसे करना था
तब वो वैसे नहीं किया!
सज़ा?
सांत्वनाओं का असह्य बोझ
कभी ख़त्म न होने वाला दर्द!
– प्रशान्त