क्यों इतने दूर हो मुझसे
मेरे स्वप्न
कि, तुम तक
कोई सीढ़ी पहुँच नहीं पाती?
मैं चाहूँ जोडूँ जितनी भी कड़ियाँ
तुम तक मेरी पहुँच
क्यों बन नहीं पाती?
मेरे स्वप्न
कि, तुम तक
कोई सीढ़ी पहुँच नहीं पाती?
मैं चाहूँ जोडूँ जितनी भी कड़ियाँ
तुम तक मेरी पहुँच
क्यों बन नहीं पाती?
इतनी ऊँचाई का भी
बताओ क्या फायदा
कि, तुम तक
पहुँचते-पहुँचते
इंसान इंसान नहीं
प्रेम प्रेम नहीं रह जाता
बीती हुयी ज़िन्दगी कि तरह।
स्वप्न तभी सार्थक है
मेरे स्वप्न
कि, तुम तक
पहुँचने के लिये
मैं जल कर महकूँ,तो सही
पर गल जाऊं अगर
तो फिर क्या?
अब और न बदलो मुझको
मेरे स्वप्न
कि, तुम तक
अगर कभी पहुंचूं भी तो
ऐसी मुलाकात हो
तुम मुझे और मैं तुम्हें
पहचान ही न सकूँ !
– प्रशान्त