इलाहाबाद

तेरे पास था तो इतनी कद्र ना थी
आज जाना तू सिर्फ शहर नहीं
कुछ और 
इमारतों पर चढ़ ये मुल्क 
शायद ऊंचा हो जाए
पर इलाहाबाद!
तेरी रूह सिरमौर है
कुछ बात तो है तुझमें
कि कैफे की महंगी कॉफी
तेरी चाय से हमेशा हार जाती है
कि तेरे यहाँ 
सर्दी में इश्क अमरुद सा निखर जाता है
थोड़ी गिरावट तो हुई है
फिर भी तू सिरमौर है
क्यों आदत पड़वा देता है अपनी
उसको जो तेरे पास आता है
इतना पूजा तो गया है तू
क्यों खुद को और पुजवाता है
क्यों हवा है तेरी ऐसी 
दूर होकर 
मेरा दम घुटा जाता है
सफलता की आस में
छद्म जीवन की धूप में
सत्य आभासित हुआ है आज
तू शहर नहीं नशा है
नाराज़ हो सकता हूँ तुझसे
खरी खोटी कह सकता हूँ
पर तुझसे अलग नहीं हो सकता
ऐ इलाहाबाद!
 तेरी रूह सिरमौर है
अशांत  

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