उर्दू के मशहूर शायर फ़िराक गोरखपुरी ने कहा था-
” अब तुमसे रुखसत होता हूँ, आओ संभालो साज़े ग़ज़ल,
नए तराने छेड़ो मेरे नग्मों को नींद आती है”
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| B.A. LL.B. (Hons.) Pioneer Batch (2006-2011 ) |
पांच साल का सफ़र ख़त्म होने की कगार पर है. डिग्री के रूप मे हम सब को इल्म का एक पुलिंदा मिलेगा, जो कि तकरीबन सभी का एक सा होगा. पर मै यकीन से कह सकता हूँ कि हर शख्स जिसने १२ नवम्बर २००६ से यहाँ सफ़र शुरू किया था खट्टी मीठी यादों की अलग सौगात लेकर ही २१ अप्रैल २०११ को बाहर निकला होगा. हमने इस मार्फ़त बहुत कोशिशें की और संघर्ष किया कि इस नए कोर्स को अलग पहचान मिले. कुछ हद तक शायद सफल भी हुए, बाकी जो काम बचा है वो हमारे उन दोस्तों के ऊपर है जिनका कुछ समय इस जगह पर बचा हुआ है. और कहीं न कही भरोसा है कि हमारे नग्मों को कभी सोने नहीं दिया जाएगा क्योंकि नए तराने छेड़ने वाले आये है और हमेशा आते रहेंगे!!
अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति हेतु कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ. कविता तो नहीं कहा जा सकता इसे, पर शायद मेरी बात सब तक पहुँच जाए. कहते हैं की बरगद के पेड़ के नीचे कोई और पेड़ नहीं उगता, लेकिन विधि संकाय के वट वृक्ष की छाया में बहुत से पौधे पनपे है जो बढ़ेगे, बहुत आगे तक बढ़ेगे…..
कुछ नया सा था उस दिन
जब पहला कदम रखा था इस जगह
एक शुरुआत का भरोसा था
छोटी सी क्लास में
बड़ा समय काटना था
नए चेहरों में
नए दोस्त तलाशना था
आज़ाद फैसलों का वक़्त था
जो लेने थे मुझे
संयोग था या साज़िश खुदा की
सब कुछ सिमटते हुए
आखिर २३ पर जा रुका
पुरानी सी जगह में सब
नया सा करना था
ज़िन्दगी की खाली ग्लास में
थोडा सा पानी भरना था
कितना शोर था
जूनून था जब सब शुरू हुआ
गाड़ियों के काफिले थे
सजावट थी
बहुत लोग थे
लग रहा था की सच में
कुछ बड़ा हुआ है
इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी में
नया कोर्स शुरू हुआ है
पहला “बैच”
तमगा मिला आते ही यहाँ
सबने कोशिश भी भरसक की
इसको भरपूर चमकाने की
किताबो के इतर
दुनिया बसाने की
इधर उधर जहाँ से भी
जिसे जो मिला
चाहे अनचाहे सबने बांटा सबसे
अलग अलग जगहों से
आये सब
अलग था परिवेश
फिर भी सब मिले जुले
कुछ जुड़े
फिर टूटे
फिर से जुड़े
साल दर साल का
खाका सा खिंचता गया
सब साथ थे पहले
कुछ दूरियां हुई
फिर पास आये
शायद फिर से दूरियां हुई
सीखा यही सभी ने
ज़िन्दगी एक सी नहीं रहती
बदलते हालातों में
खुद को ढाल लेना ही
ज़िन्दगी है
याद आएगा सब
जो कुछ भी किया यहाँ पर
पुरानी लकड़ी की कुर्सियां
बिना “डायस” वाली क्लास
एक पोडियम जिस पर
कुछ नहीं लिखा था
सारे पंखे और लाईट्स
जो सिर्फ एक स्विच से चलते थे
पुरानी डेस्क्स जिन पर
हमने बहुत कुछ लिखा था
“पीस” और “वार” से शुरू
हुई थी पहली क्लास
बहुत असर पड़ा शायद
“वार” और “पीस” के बीच
नाचता रहा सब
कम्प्यूटर लैब का इंतज़ार
कांफ्रेंस रूम की लम्बी मेजों
पर लाइन से बैठना
शाम ६ बजे तक क्लास में बैठना
सब कुछ अनोखा था
वाकई में नयापन था
बरगद के पेड़ के पास
तब कच्ची मिट्टी थी
जिस पर बारिश में चलना
मुश्किल होता था
पर पता नहीं क्यों
तब बुरा नहीं लगता था
कोई निराशा भी ना थी
उम्मीद थी की सब बेहतर होगा
बदलाव हुआ
किताबों के पन्ने बदले
रिश्तों के समीकरण बदले
राग द्वेष इर्ष्या क्रोध सत्य असत्य
सब एक मंच पर खूब उछले
बस अच्छा यही था कि
ये हालात एक सबक से
आगे कुछ भी ना बने
बहुत कुछ सीखा कि
ज़िन्दगी इतनी भी आसान नहीं
जितनी कि लगती है
पर मज़ा भी इसी में है
कि चलते रहो राह में
और राहगुज़र कुछ सिखाता जाए
नम्बरों से मोह ख़त्म ही था
उसका ज़िक्र क्या करूँ
फिर भी बदलते हुए रिसल्ट्स
आशा और निराशा का मेल
सब कुछ कितना अजीब था
तब बुरा लगता था
कल शायद यही सब
याद आएगा
और कुछ पता नहीं
पर हाँ मजबूत तो हुआ हूँ मैं
राहुल के वो फर्जी मज़ाक
हर बात पर हँसना
एक्साम के दिनों में
“हाउ मच” वाला मेसेज
उसकी बाईक पर टहलना
एक दुसरे को “चूतिया” साबित करना
बहुत अलग होते हुए भी
इतने साल साथ रहना
आज झूठ नहीं बोलूँगा, याद आएगा
इशिता का स्टाईल
उस से बेहिचक बात करना
हर बात पर राय लेना
उसको कुछ समझाना
उस से कुछ समझना
इस बात का विश्वास होना
कुछ भी हो हालात
एक दोस्त तो हमेशा है
आज झूठ नहीं बोलूँगा, याद आएगा
अभिजीत को वो चिल्लाना
फिर कहना कि मैं ऐसा ही हूँ
कुछ कहना, फिर तुरंत पूछना
भाई बुरा तो नहीं माने ना
हमारे निरंतर वैचारिक मतभेद
आज झूठ नहीं बोलूँगा याद आएगा
बप्पा का हमेशा देर से आना
बिन सोचे कुछ भी बोल जाना
समर्थ से एक्साम से पहले पूछना
यार तुमने कितनी देर में ख़त्म किया
शुभम के घर होली की शाम
मूट के दौरान किया हर एक काम
अक्षत का वो सबकी फ़िक्र करना
संयुक्ता का जोश में आकर गर्दन झटकना
आज झूठ नहीं बोलूँगा, याद आएगा
आस्था का लेट आना
औरों के साथ प्रोजेक्ट मैच हो जाना
दिव्या का बेफिक्र अंदाज़
और वो हलकी सी बनाई हुई आवाज़
गौरव के साथ बीती लखनऊ की रातें
हॉस्टल में की हुई अनगिनत बातें
जय का एहतियातन थोडा सा नशे में होना
उस नशे में कोई नाम को लेना
चाहे जो भी हो दिन चाहे जो भी समय
बस फैकल्टी फैकल्टी कहना
आज झूठ नहीं बोलूँगा, याद आएगा
धवल के वो ऐतिहासिक संवाद
शुभम को देना वो जूनियर जी का खिताब
कृष्णम के साथ हुई क्रिकेट की हर बात
और हाँ उसके वो घुंघराले लम्बे बाल
सौमित्र का वो मस्ताना मिजाज़
मनीष भाई की मतवाली चाल
रजनीश बाबा का दीवाना माहौल
आज झूठ नहीं बोलूँगा, याद आएगा
प्रगति का पहला महिला अध्यक्ष बनना
मूट के दौरान वो बटर स्कॉच फेंकना
गरिमा का किसी का “चिट” फाड़ना
नम्रता का ज़िन्दगी की तरफ फोकस
पारुल का वो झट से हँसना और फिर रोना
स्वाति की वो अजीब से ना रुकने वाली हंसी
आज झूठ नहीं बोलूँगा, याद आएगा
बहुत कुछ बदला है
इन पांच सालों में
कुर्सियां बदल गई
डेस्क्स हट गईं
पंखे अब अलग स्विच
से चलते हैं
बरगद के पास
घेरा बन गया है
ज़मीन भी अब पक्की है
पहले सिर्फ एक क्लास थी
अब बहुत हैं
एक नई इमारत भी बनने को है
पहले एक पोडियम था
अब कई हैं और सब पर
कुछ लिखा हुआ है
और कल से एक चीज़
और बदल गई है
२३ लोग जिनकी
खिलखिलाहट से गूंजता था कैम्पस
जिनकी लड़ाइयों को सुनती थी दीवारें
कल वो आखिरी बार बैठे थे
अपनी क्लास में
बहुत कुछ बदला है उनके लिए
अब टेस्ट एक्साम की चिंता ना रहेगी
कोई किसी से ना पूछेगा
प्रोजेक्ट जमा किया कि नहीं
पेपर खराब होने पर साथ हंसने वाला
कोई ना होगा
ज़िन्दगी के एक्साम में
वैसे भी कहाँ मौका मिलता है
सोचने का
कोई किसी के अफेयर
के बारे में ना पूछेगा
सुबह उठते ही
ये चिंता ना होगी की
ड्रेस साफ़ है या नहीं
आखिरी समय पर प्रोजेक्ट
नहीं बनेगा
कोई नहीं पूछेगा दोस्त से
क्लास ख़त्म हुई की नहीं
लेट होने पर दरवाज़े के बहार से
कोई इशारा नहीं करेगा
सुनील की चाय की दूकान तो रहेगी
पर कुछ लोगों की आवाज़
वहां फिर ना सुनाई देगी
हमारी क्लासों की बोरियत से
बचने का अड्डा रहेगा तो
पर हाँ
पहले जैसा ना रहेगा
कोई बहाना ना होगा दिल को मनाने का
कि इस बार नहीं तो अगली बार सही
कोई शायद फिर किसी को
घर पे उठाने नहीं आएगा
नहीं चिल्लाएगा
“जल्दी चलो बे, क्लास के लिए देर हो रही है”
हर फंक्शन के बाद वो मस्ती ना होगी
अब तो इमारत भी बन जायेगी
उसकी कमी को जताने के लिए
हमारा तबका ना होगा
वो उम्र वो जज़्बात हमारे ना फिर आयेगे
क्रिकेट तो देखेंगे
पर सचिन अच्छा या पोंटिंग
ये बहस ना होगी
शाहरुख़ या आमिर? इस पर
लड़ाई की नौबत ना आएगी
किस से बिना हिचकिचाहट कहेंगे अब
यार सच में कुछ नहीं आता
बेफिक्री तो अब गई यारों
बस यही यादें रह जायेगी
बस यही यादें रह जायेगी
आज झूठ नहीं बोलूँगा, सब बहुत याद आएगा
बदला है
ज़रूर कुछ बदला है मेरे लिए
शायद आज के बाद मुझे कोई
वैसे ही
अच्छा बुरा नहीं कहेगा…….
मेरी खताओं को माफ़ करना यारों
एक रज़ा बस मेरी मंज़ूर करना
मुझसे ना कभी कोई गिला शिकवा रखना
दोस्त ना ही सही फकत इंसान ही समझ
किसी ना किसी बहाने मुझे याद रखना…..
अशांत














Great work yaar… Maza aa gya ise padh ke… kuch shabdon mein jaise mere jeevan ke 5 saal rewind ho gye..
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very very nice…..really heart touching…bhale hi i was not a part of it but samajh gaya tumhare logon k 5 saal….Mr. ASHANT—-GAJAB….
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