आत्मप्रवंचना

पिछले साल कहा था तुमने
तुम मुझसे मिलने आओगी
उस नगर जो मेरा नहीं था
वहाँ से चलना था हमको
जहाँ दोनों नहीं गये थे कभी
तुम बिना बताये चुप हो गये
मैं कर रहा प्रतीक्षा आज भी तुम्हारे आने की।

उन मनोरम स्थलों पर
जहाँ तुमने नहीं जाना चाहा मेरे साथ
जब भी देखता हूँ तुम्हारे चित्र
सत्य है मुझे नहीं होता क्रोध
पर मैं कोसता हूँ स्वयं को और
ढूँढ़ता हूँ अपने दोष
कोई कारण रहा होगा मुझे न अपनाने का।

जब धवल चट्टानों के समीप
तुम थोड़े ग़ुलाबी से
आँखों को ढके काले चश्मों से
बना रहे थे नये संबंध
दो पक्षों में हो रहे थे अनुबंध
मैं लिख रहा था उस समय तुम्हारे वियोग में
मेरी वो कविता आज भी अधूरी है।

तुम्हारी मेहंदी की हर एक रेखा
काल का क्रूर प्रहार है
नयी सड़क बनाने को जैसे
जेसीबी चला दी हो किसी ने हृदय पर
जब तुम डगमगा रहे थे सागर में
मैंने हर पल दिया था तुम्हारा साथ
फिर क्यों छोड़ गये तुम मुझे किनारों पर?

स्थान परिवर्तन बदल सकता है भावों को
यह सीखा है मैंने तुमसे
मैंने बदले कई स्थान, पर सच बताऊँ
वो लाल-पीली दीवार वाला मुख्य दरवाज़ा
मुझे आज भी अच्छा लगता है
कदाचित मैं नहीं समझ पाया तुम जैसे
प्रेम का भी होता है अपना अर्थशास्त्र।

क्यों सुनाये थे तुमने मुझे गीत?
क्यों किया था वो सरल अट्टाहास?
क्यों मिलने आयी थी तुम मुझसे?
क्यों था तुम्हारे भावों में मेरे लिये प्रेम?
कदाचित तुम कभी थी ही नहीं
तुम आज भी जो बसती हो मुझ में
तुम नहीं हो, वह मेरी आत्मप्रवंचना है!

भारी होंगी तुम्हारी उंगलियाँ रत्नों से जब
भारी होगा मेरा हृदय तुम्हारी सरलता के लोप से
तुम्हें भी कुछ खटके शायद किसी दिन
शायद ढूँढ़ो तुम मुझे उपन्यासों में
पर अब मैं नहीं मिलूँगा
मेरा जीवित प्रेम चाहता है अवलम्ब
आडंबर ही सही मुझे व्यस्त रहना होगा।

मैंने स्वीकार कर लिया है
मुझे नहीं मिलेंगे उत्तर कुछ प्रश्नों के
क्यों तुम मेरे साथ खड़ी नहीं हुयी?
क्यों नहीं छू पाये तुम्हें मेरे हृदय उद्गार?
क्यों मैं बना रहा तुम्हारे लिये मात्र एक प्रयोग?
कोई कमी रही होगी मुझ में ही
हर प्रेमी स्वयं होता है अपनी पीड़ा का स्रोत।

मेरी निजी स्मृतियों का सम्पूर्ण कोष हो तुम
मुझे आगे जाने का मन नहीं करता
मैं मना लेता स्वयं को
अगर तुम असाध्य होती
मेरे हृदय की रिक्तता भरेगी तुम्हारे ही विचारों से
मेरा असफल प्रेम आत्मप्रवंचना है,पर
मैं चिरन्तन तुम्हें प्रेम करता रहूँगा…..

– अशान्त

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