कान्हा नैश्नल पार्क

मुझे याद है कान्हा नैश्नल पार्क की वो सुबह
जहाँ पहुँची थी मैं एक झुंड के साथ
सुना था वहाँ रहते हैं बाघ और सियार
हम सब में रहता है बाघ और सियार,
मेरे लिये भी सब नया था
किसी ने मुझे हाल में “फौक्सी” कहा था
सच कहूँ तो मुझे तुम याद भी नहीं थे
गलती तुम्हारी है तुमने मुझे कभी बाँधा नहीं
तुम्हारे अंदर मुझे कभी नहीं दिखा कोई बाघ
तुम कान्हा हो सकते हो पर बाघ नहीं
और यह समय है शिकारी बाघों का
न कि किताबों में बसी ज़ुबाँ पर घुली बातों का
इसलिये मैं गयी थी देखने बाघ- कान्हा नैश्नल पार्क!

मुझे वैसे भी नहीं आती
किसी ख़ूबसूरत जगह तुम्हारी याद
मुझे तुम बंद कमरों में याद आते हो
मेरे आँसुओं का खारापन तुम ही से है
इस संसार में भी चलता है जंगल का कानून
जहाँ जीतता है बाघ या फिर सियार;
तुम हमेशा हारोगे
क्योंकि तुम बाघ नहीं हो, और
मर चुका है तुम्हारे अंदर का सियार
इसलिये मैं तुम्हें चाह सकती हूँ
पर रह नहीं सकती तुम्हारे साथ।

तुम्हारे पास क्या है बचाने को अपनी आँखें
पेड़ों से छन कर आते सूरज से
मेरे साथी ने ढका है खुद को रे-बैसे
तुम्हारे आँखें धुंधला गयी हैं प्रखर प्रकाश से
तुम्हें कुछ व्यवहारिक दिखायी नहीं देता;
अगर पाना है प्रेम को रहना है मेरे साथ
तुम्हें बाघ बनना होगा
निकलना होगा चहारदीवारी से
घूमना होगा कान्हा नैश्नल पार्क
क्योंकि चलता है इस दुनिया में अब भी
जंगल का कानून;
अफ़सोस तुम न बाघ हो न सियार-
तुम कमज़ोर हो
तुम्हें लड़ना नहीं आता।

– अशान्त

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