पिछले दिसम्बर इसी ठंड में
मैंने तुमको भीड़ में देखा था,
मुझे पता था कि उन सैकड़ों लोगों में
तुम सिर्फ़ मुझे देख रहे हो
सभी सजावट तुम्हारे प्रेम का विस्तार थी
जो कि सिर्फ मुझे दिखाई दे रहा था;
इस दिसम्बर सब फिर वैसा है
फिर सजावट है
पर तुम्हारे प्रेम का विस्तार नहीं
सब संकुचित है
मेरी पीठ पर अनलिखे शब्द पढ़ने को
तुम नहीं हो, बस
एक नुमाइश है
जिसमें मैं घुट-घुट के मर रही हूँ।
मेरी कागज़ की अंगूठी कहीं खो गयी है
शायद तुम्हारी दी हुयी किताब के साथ
और खो गया है एक प्रश्न
तुम सिर्फ मेरे थे
फिर सामने तुम क्यों नहीं हो?
जो तुम नहीं-
तो मेरा स्वाभिमान नहीं
तो मेरी चेतना नहीं;
वो जो मंच पर नकली हँसी हँस रही
मेरे प्रिय वो तुम्हारी प्रेमिका नहीं है।
पिछले दिसम्बर तुम साथ थे
अब हर दिसम्बर सब ठंडा ही रहेगा
हर दिसम्बर तुम नहीं रहोगे, और
मैं हो कर भी नहीं रहूँगी।
– अशान्त
\”अशांत\”आप की क्रांतिकारी कलम से पुनः बेहतरीन अभिव्यक्ति।।
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