कुल्हाड़ी

किसी ने पेड़ गिराने को
उसके तने पर कुल्हाड़ी मारी
अनगिनत बारिशों
अनगिनत आँधियों
अनगिनत दोपहरों
को झेल चुका था जो
सहज ग्रहण कर लिया उसने वह प्रहार;
विडंबना ये है
कुल्हाड़ी चिपक गयी है
बिछड़ी प्रेमिका सी
दिख रही है तने पर रस की एक लक़ीर
जो हर बीतते दिन के साथ
परत दर परत मोटी होती जा रही है।

पेड़ खड़ा है
पत्तियाँ हरी हैं
पर अब वो खुलकर झूमता नहीं
बारिश में अंदर तक भीगता नहीं
यह आवश्यक नहीं
जो बाहर से हरा हो
अंदर से सूखा ना हो;
कुल्हाड़ी आज भी गड़ी है तने पर
टपक रहा है रस भी
कुल्हाड़ी स्मारिका है
उसकी भावनात्मक असफलता की।

– अशान्त

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