कुछ दिन ही बीते हैं, पर
तुम्हारे सारे गीत
तुम्हारे सब वचन
तुम्हारी सारी भावनायें
तुम्हारा सारा प्रेम
सब मर चुका है,
जो मेरा होने का आभास था अब तक
सत्य आवरण में हो चुका है किसी और का।
क्यों आवश्यक होता है
किसी के साथ वैसा अन्याय
जैसा हुआ था आपके साथ
हर साथ वाला प्रेमी नहीं होता,
क्यों आवश्यक होता है
सुविधा की वेदी पर
किसी निश्छल हृदय का बलिदान
हर कोई मुझसा प्रेमी नहीं होता।
और निर्मम हो तो सम्पूर्ण बनो
नहीं छिप सकती आत्मिक सत्यता
समाज, परिवार, प्रतिष्ठा की परतों में
सच यह है कि भौतिकता की चाशनी में
तुम भी घुल गये हो,
सच यह है जिसे मैंने जाना था
तुम वह नहीं अब बदल गये हो,
यह कोई क्रमिक विकास नहीं
भावनात्मक अवनति है
मुझे न तो क्रोध है न प्रसन्नता
मेरे पास न श्राप है न आशीर्वाद,
अब तुम्हारे प्रति
मैं चिरस्थायी उदासीन हूँ।
कुछ अर्थहीन शब्द न बोले होते तुमने
नहीं उद्वेलित किया होता अपने क्षणिक स्पर्श से
नहीं रखा होता साथ पर अपना बनाया होता
कदाचित,
नहीं होती एक प्रेमी की असमय मृत्यु!
– अशान्त