बुझ गयी है दीये की बाती
डूब कर अपने ही घी के सागर में
यह नहीं आवश्यक
घी हर बाती को जला ही देगा,
तुम्हारा होना ही मेरा होना था
ऐसा सोचा था मैंने
पर जलने की जगह
डूब गया मैं तुम में ही,
अब शायद फिर कभी नहीं जलूगा
नदी का रहता क्या अस्तित्व
मिल कर सागर से
नहीं उतरायेगे मेरे भाव तुम्हारी सतह पर
कुछ इस तरह डूबा हूँ मैं।
अंदर सब भावहीन है-
न हास्य न रून्दन
न शांति न क्रंदन;
असीम अंधकार पी लिया है मैंने
मेरी आँखें मिल कर मेरी पुतली में
काली हो गयी हैं
मैं डरावना हूँ उस चीते सा
मार दिया गया जिसे परसों
अंतर ये है कि उसकी सांसे रुक गयी
पर मैं अभी तक जिंदा हूँ।
मुझे करनी है प्रकाश की खोज
हर दिन चाहिये दीपावली का प्रकाश,
क्योंकि दबे-दबे सच्चाई से
मेरा मन मसक गया है
सील गया है जीवन
उस अश्रुधारा से जो कभी बही ही नहीं;
मुझे चाहिये प्रकाश ओज का
मुझे चाहिये प्रकाश संतोष का
तुम्हारे जाने से अगर विलुप्त हुआ प्रेम
मेरे मूल्य
मेरे आदर्श
मेरे त्याग
सब समाप्त हो जायेगा
समाप्त हो जायेगा प्रकाश
और उसकी खोज।
मेरा प्रकाश व्याप्त है तुम में
लेकर रूप प्रेम का
लाँघना चाहता है सामीप्य की प्राचीर
पर मेरे थके पैर
फूलती साँस
बोझिल मन
और संशय, ढकेल रहे हैं मुझे;
मैं असफल नहीं होना चाहता
प्रकाश की खोज में,
नहीं जीना तुम बिन काली आँखों के साथ
मुझसे दूर मत हो जाओ तुम
न ले जाओ प्रकाशमय जीवन!
मैं डूब कर बुझना नहीं
तुम्हारी ऊष्मा में जलना चाहता हूँ
पूरी करने अपनी प्रकाश की खोज
मैं जीना चाहता हूँ
बस एक बार मुझे सफल कर दो।
– अशान्त