मेरी विजयदशमी

हर रावण दशानन नहीं होता
हर बाली शत्रु-शक्तिहन्ता नहीं होता
मेरे राम, तुम तो दयानिधान हो
आज वध कर दो उस पाप का
जो खा रहा है धीरे-धीरे
मेरा प्रेम
मेरी आत्मा
मेरे जीवन को।

हे राम! समाप्त कर दो हर भाव
जो पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता
मेरी गीली आंखों में काई जम गयी है
प्रार्थना में जीभ लटपटाने लगी है
अब पढ़ लो मेरे मन को
मुक्त कर दो जीवन से ।

सफलता, प्रसन्नता, यश, कीर्ति
नहीं अभिलाषा किसी की,
हे राम! बहुत हुआ ये खेल
अब गिरा दो पर्दा
भेज दो नेपथ्य में
सुला लो मुझे अपनी गोद में
नहीं सही जाती अब और
इन आँखों से सत्य की ऊष्मा,
हे राम! समाप्त कर दो हर भाव-
मुझे भी विजयदशमी बनानी है!

– अशान्त

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