प्रतिध्वनि

निज-जीवन की निराश्रय डोर
मुझे आज कहाँ ले आयी है
मैं याचक था सरस प्रेम का
ये नीरसता आततायी है

मन अधीर मुख गम्भीर
ये अंतरतम की परछाईं है
एक सुखद क्षण की अदम्य खोज
ये आज कहाँ ले आयी है

माने नहीं जीवन के जो प्रतिमान
वही विचलित क्यों कर जाते हैं
निज-चयन से नहीं चढ़े जो सोपान
क्यों अब वही पश्चाताप कराते हैं

क्या शांत मन को पाने को
स्व का लोप आवश्यक है?
क्या जीवन को समझ पाने को
स्व का लोप आवश्यक है?

जो कभी पाटी न जा पायेगी
बढ़ी तन से मन की दूरी उतनी
जो कभी न समझ में आयेगी
बढ़ी प्रेम से जीवन की दूरी इतनी

नव जीवन का उल्लास नहीं
मैं मूल सत्य का अभिलाषी हूँ
जिसका ऋणात्मक आभास नहीं
मैं उस प्रेम का अभिलाषी हूँ

नैना निश्छल अश्रु से प्लावित
मन भीषण विप्लव का साक्षी है
अन्तहीन संघर्ष से व्यथित
मन सरल प्रेम का प्रार्थी है

रहो न मन के पास तो फिर
चाहे सात समंदर पार रहो
उस दूरी को लांघें कैसे
इस पार रहो या उस पार रहो

मन के साहस का बंध
अपनों द्वारा तोड़ा जाता है
किस पर कर लें विश्वास
स्वयं से जी कतराता है

चलना ही जब कर्म जीव का
चलेगा वो मानों अपमानों में
दुर्दिन के वो पार्थिव शब्द
नींव बनेंगे सम्मानों के

है परित्यक्त सा जो वो
जिसका नहीं कोई अवलंबन
समय चक्र जब बदलेगा
बनेंगे सब असम्भव गठबंधन

पर पीड़ा हृदय की जो है आज
वो आजीवन यूँ तड़पायेगी
स्मृतियों के अबूझ जाल में
वो तुमको फाँस ले जायेगी

कोई हल निकले इस पहेली का
तो मुझको प्रभु तुम बतलाना
थे राम रहे कैसे सीता बिन
प्रभु मुझे तुम कभी बतलाना

हर असफलता है एक वनवास
हर अपूर्ण प्रेम एक सीता है
न राम फलित हैं इस युग में
अर्थ ढूंढ़ती गीता है

कोई नया पथ दिख जाये तो
जीवन को कुछ आश्रय मिल जाये
मैं याचक था सरस प्रेम का
ये नीरसता आततायी है

– अशान्त

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