झूठी आशा पाल ली थी मैंने
तुम में ढूँढ़ने लगी थी मैं अपना आधार
ये सोचती थी-
मैं हँसूँ तो तुम भी हंसो
मैं रोऊँ तो तुम भी रोओ;
मेरे बिना खुश या दुःखी
कैसे हो सकते हो तुम?
स्कूटी पर तुम्हारे पीछे बैठकर
तुम्हें कभी नहीं छुआ
कहीं तुम तन से भी अपने न हो जाओ।
तुम्हारी अनवरत बातों को
बस सुना जवाब नहीं दिया
कहीं तुम्हारे शब्दों में बोलने न लगूँ।
मेज के उस पार बैठे तुमको
चश्मा उतार कर कभी नहीं देखा
कहीं ये अनदेखी दीवार न गिर जाये।
जब सब चले जाते हैं घर से
सुनाई देती है बस नल की टपकन
तब तुम बहुत याद आते हो।
तुम्हें पाने की झूठी आशा पाल ली थी मैंने
पर ये भी तो एक झूठ है, नहीं तो
क्यों हर कॉफ़ी के कप पर तुम आते हो याद?
क्यों हर महफ़िल में लगता है तुम क्यों नहीं हो?
क्यों बेवजह तुम्हारे आँसू मेरी आँखों से बहते है?
क्यों कोसती हूँ मैं खुद को खुद के लिये?
क्यों तुम्हारी कमी से मेरा घर खाली है?
क्या तुम सच में मेरे नहीं हो?
क्या सच में मैंने पाल ली थी एक झूठी आशा?
तुम्हारी याद का एक स्टिकर
मेरी डायरी पर चिपका हुआ है;
झूठ-सच से परे मुझे अब भी लगता है
उस शरीर के अंदर जो बसता है तुम में
जो सुंदर बन जाते हो तुम मेरे सामने
वो सब मेरा है,
सभी शंकाओं के मध्य, एक सत्य निर्विवाद
तुम सिर्फ़ मेरे हो…. सिर्फ़ मेरे
– अशान्त