क्षत-विक्षत हृदय के संग
मन के हुये सब भाव अपंग
व्याकुलता से त्रस्त हर अंग
अवसाद रूपी लिपटा भुजंग,
कितने पूछोगे प्रश्न अविराम
अब कितनी परीक्षा लोगे राम?
नहीं द्वेष किसी से मेरा कोई
कभी न चाहूँ कि रोये कोई
निज हेतु दे दे प्रेम जो कोई
इससे अधिक नहीं इच्छा कोई,
कब तक लोगे अपराधी मेरा नाम
अब कितनी परीक्षा लोगे राम?
था विश्वास मुझे तुम पर अटल
झंझावातों में रखोगे तुम अचल
थके पगों को न दिखे कुछ समतल
इन दुर्गम पथ पर कैसे पाऊँगा चल,
हूँ इतना हीन तो लिखो मृत्यु मेरे नाम
अब कितनी परीक्षा लोगे राम?
दो बोल प्रेम के चाहे थे
सम्मान के कुछ क्षण चाहे थे
न धन के बोरे चाहे थे
न अनल बाण हृदय में चाहे थे,
क्यों दंड अनन्त किया क्या ऐसा काम
अब कितनी परीक्षा लोगे राम?
जिजीविषा समाप्त अब होती है
सन्तप्त आत्मा मुखर हो रोती है
त्रुटियाँ किस से नहीं होती हैं
क्या क्षमा मेरे लिये नहीं होती है?
शरण में तेरी कब से मैं अविराम
अब और परीक्षा मत लो राम!
है मृत्यु ध्येय तो दे दो राम
है क्षमा ध्येय तो दे दो राम
है समर ध्येय तो दे दो राम
है प्रेम ध्येय तो दे दो राम
बस, अब और परीक्षा मत लो राम…..
– अशान्त