गमन

शेखर, जिन्हें आप पहले भी पढ़ चुके हैं, उन्होंने किसी एक जगह से गमन पर साथ में और क्या क्या जाता है और मन क्या क्या सहता है उसे सहजता से शब्दों में उतार दिया है। यह कविता स्मृतियों के माध्यम से भावों का गमन है….

सामान बाँध लिया है मैंने
कुछ बक्से में रख लिया है
और बहुत कुछ रद्दी में निकाल दिया है

चंद कॉपियाँ, जिनके आखिरी पन्ने में
कुछ सपने दफ़न थे
तुम्हारा नाम भी कई बार लिख कर काटा था

अनगिनत पर्चे, जिनकी स्याही
काग़ज़ से मिट कर
मेरे माथे पर जम गयी थी

इतने सालों की मेरी बेकार साँसें
जो सीलन बन कर दीवारों से चिपक गयी थी
यहीं छोड़े जा रही हूँ

जो पुराना था अब छूट रहा है,
पर मेरा बक्सा अब बन्द हो रहा है।

– शेखर

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