रूठी कोयल

रोज़ एक कोयल आती थी छत पर
ले कर कुछ तिनके कुछ दाने
रोज़ जी उठता था बचपन
जब गाती थी वो कोकिल गाने;
जब से सूख गये सब नैना
अब उसका कोई अपना है न
तब से वो नहीं आती
वो क्या अब हवा भी नहीं गाती;
जब भाव का कोई प्रभाव नहीं
प्रेमहीन उसका स्वभाव नहीं
जितना भी बोलो दाने डालो
पर अब वो नहीं आती।

एक स्वप्न मेरे छुटपन का
एक दोस्त मेरे बचपन का
एक प्रेम मेरे यौवन का
एक क्षोभ मेरे जीवन का-
मेरे नैना जब से सूख गये
तब से ये सब भी नहीं आते।

– अशान्त

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