उत्कंठा

वो अंतरतम का दीपक स्थल
कब ज्योतिमान होगा तुम से?
कब हटेंगे तम के आवरण
कब जीव मिल सकेगा तुम से?

सरस जीव की नीरस धृति पर
प्रेम-सुधा विष जैसे आहत करता
कराहता अंतर्मन आत्म-क्षुधा बर्बर
कब जीव मिल सकेगा तुम से?

हर स्पर्श मन का मलिन हुआ
भोग तप सा बन न सका
अगर सिमट कर छिप जाऊँ
कब जीव मिल सकेगा तुमसे?

अब कर्कश हैं सब स्निग्ध स्वर
जो बदले वो सनातन सत्य नहीं
तुलसी जानें सब है नश्वर, बोले
कब जीव मिल सकेगा तुमसे?

तुम कहाँ छुपे हो मेरे अंदर
क्यों होने देते औरों पर निर्भर
सतत परीक्षा असह्य हुई,बतलाओ
कब जीव मिल सकेगा तुमसे?

– अशान्त

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