बेरोज़गार इश्क़

शेखर (परिचय के लिये क्लिक करें) ने  शहरी परिदृश्य में प्रेम को अपने सुंदर शब्दों के माध्यम से टटोला है।  ऐसा प्रेम जिसमें चाँद-तारे तोड़ने के वादे नहीं पर घडी की टिक-टिक गिनने की सहजता है।  ऐसा प्रेम जो तार्किक है और किया जा सकता है, सिर्फ सोचा नहीं जा सकता।  इसी यथार्थपरकता के भाव के साथ आप सबके लिये प्रस्तुत हैं शेखर की ये भाव -पूर्ण  पंक्तियाँ-

अच्छा ही है जो तुम शहर के दूसरे कोने में रहती हो,
वरना मेरा इश्क़ कितना बेरोज़गार हो गया होता। 
तुमसे चार दफ़ा पूछना कि तुम निकली कि नहीं 
फ़िर चार दफ़ा घड़ी की टिक-टिक को गिनना,

अच्छा ही है जो तुम मेट्रो में अनरीचेबल हो जाती हो 
वरना मेरा इश्क़ कितना बेरोज़गार हो गया होता। 
हर आधे मिनट में हाथ का फ़ोन की तरफ़ बढ़ना 
“अब किस स्टेशन से गुज़री होगी तुम” का अंदाज़ा लगाना-

जो तुम पास होती तो इन झंझटों से पाला छूट गया होता
लेकिन, मेरा इश्क़ कितना बेरोज़गार हो गयाा होता। 
– शेखर  


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