थोड़ी सी नींद

ये बचपन नहीं
जब आँख का बंद होना
होता था नींद का आना,
अब तो आँखें बंद होते ही
मन चलने लगता है
आज से पीछे
आज से आगे;
इसी दौड़ में
बहुत दिनों से नींद नहीं आयी है,
काश! कोई गोद में रख लेता सिर
और सिर पर अपने हाथ
फिर होठों से पी लेता
इन जागती आंखों के सपने
जो न जीने देते हैं
ना ही सोने देते हैं।

काश! कोई सुला देता
फिर से वही बचपन वाली नींद
जिसे कोई अलार्म ना तोड़ पाये
कोई अभिलाषा ना मोड़ पाये;
काश! कोई सुला देता
फिर से वही चैन वाली नींद
जिसमें होती शाम-सुबह एक
देते सब चिंतायें सब फेंक;
सोना ही तो असली सोना है
बाकी सब तो एक दिन खोना है,
कोई अपनी पेशानी के तिल में
या छुपा लेता अपने दिल में,
तो शायद
पूरी नहीं तो थोड़ी सही
पर नींद आ जाये।

– प्रशान्त

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