प्रेम-सूर्य

मेरे कमरे में धुंध भर गयी है
प्रेम-सूर्य कहाँ हो तुम?
अब और न छिपो मुझसे
मुझे कुछ दिखाई नहीं देता,
मैं कब तक चलूँगा अंदाज़े से
इन पथरीली राहों पर
अंधेरा चुभता है बहुत
अब मेरे दिल को;
दूर ही सही आकाश में आओ तो
अपने नैनों की चमक दिखलाओ तो,
तुम्हारी किरणों को छूकर मान लूँगा
तुम मेरे पास हो!

इस ज़मीन पर चाहे मिलो न तुम
पर याद रखना,
सूरज सागर में ही डूबता है
और मेरा नाम “प्रशान्त” है!

– प्रशान्त

One thought on “प्रेम-सूर्य

Leave a comment