तस्वीरें स्क्रीन पर नहीं
काग़ज़ पर अच्छी लगती हैं,
उभर आते हैं जज़्बात
काग़ज़ की ख़ुशबू के साथ,
जी सा जाता है वो पल
जब कोई मुस्कुराया था
और पहुँच जाती है आवाज़ें
चीर कर गाड़ियों का शोर
भेद कर कोहरे का गुबार
पार कर दूरी की लंबी दीवार
उस तक,
जो बंद कमरे में देख रहा है
आज भी तस्वीरें;
आँखें आँसुओं से धुंधली है
दिल कसक से भरा है
पर है तक़ाज़ा उम्मीद का
कि होंगी ज़िन्दा एक दिन ज़रूर
डायरी में बंद काग़ज़ी तस्वीरें,
हाँ, उस दिन फिर से
कोई खुल के खिलखिलायेगा!
– प्रशान्त