डूबता सूरज

ऐ डूबते सूरज!
क्या निगल सकते हो तुम?
मुझे और मेरे संतापों को
उस प्रकाश की तरह जो
तुम्हारे डूबते ही
चला जायेगा पृथ्वी से,
जीवन से भी।

ऐ डूबते सूरज!
क्या ये सच है?
तुम षड्यंत्रकारी हो
डूबते हो कि उग सको कहीं और
चल सके तुम्हारी सत्ता निरन्तर
प्रेम, ईर्ष्या, द्वेष, भावनायें
चलता रहे माया का व्यापार।

ऐ डूबते सूरज!
गर्व होता होगा तुम्हें भी
जब पूजते हैं पूरबिये तुम्हें
या तुम्हारा शिल्प सजता है मंदिरों में
तुम्हीं जनक हो जीवन के
जो मिथ्या है
दुःख के सिवा जिसमें कुछ भी नहीं।

ऐ डूबते सूरज!
डुबा दो मुझे भी तुम
क्षितिज के उस पार
मेरा कुछ भी दिखाई न दे
मेरा अस्तित्व, मेरी कामनायें
सब डूब जाये उस समुद्र में
जिसमें नदियाँ खो जाती है।

ऐ डूबते सूरज!
मुझे निगल लो तुम….
पुनः उग सके मेरा जीवन कदाचित
फिर हँस सके
फिर जी सके
कर सके आलिंगन उस प्रेम का
जो उसे कभी मिला ही नहीं।

– प्रशान्त

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