पाँव सुन्न हैं
दिमाग भी,
पिछले कई सालों से
कुछ बदला ही नहीं
अब सपने भी लगे हैं दोहराने
खुद को,
शायद ज़रूरत है मुझे
नये सफ़र की।
इंसान ढूंढ़ता है
नये सहारे
जब ढह जाती हैं
बनी बनायी इमारतें,
मेरे भी रिश्ते मेरे शहर में
छूट गये
दोनों में
कोई एक तो गलत था।
नया सफ़र कुछ और नहीं
बहाना है ख़ुद से लड़ने का
क्योंकि कुछ मिला नहीं
पुरानी तरकीबों से
आदर्श छुपे रहे किताबों में
क्योंकि,मैं ख़ुद कमज़ोर था!
अब बचा ही क्या
जिसे मैं अपना कह सकूँ
अब रहा ही क्या
जहाँ मैं खुश रह सकूँ
मुसलसल साँसों की
भरपाई के लिये
चलो अब कोई
नया सफ़र करते हैं।
-प्रशान्त