कुछ धुंधला था मेरा सपना
धुंधली थी मेरी सुबह
अगर कुछ भी नहीं
तो, आँखें ज़रूर धुंधली थीं।
सुबह सुबह तुम बैठी थी
मेरी मेज़ पर
जैसे कोई अधखुली किताब
बुकमार्क से लग रहे थे
तुम्हारे चेहरे के तिल
उन पन्नों की तरह
जिन पर शिकन थी
कई बार पढ़े जाने की
एक बार भी समझ न आने की।
सुबह सुबह तुम बैठी थी
कुछ यूँ मेरे पास
थोड़ी खुली खिड़की से
आयी हो जैसे धुंध
कुछ मिली ऐसे तुम
ओढ़ ली मैंने बूँदों की चादर;
तुमसे टकराकर और गहराया
अगरबत्ती का धुआँ
जिसके छल्लों में जी ली
हमने भी थोड़ी सी ख़ुशी।
पर गायब हो गयी तुम
सूरज के निकलते ही
परेशानी में गायब हो जाते हैं
जैसे कुछ दोस्त
किसी समकालीन पेंटिंग की तरह
तुम मुझे कभी कभी समझ नहीं आती,
ठन्डे रिश्ते आख़िर
बनते हैं अंधेरों में
अंधेरों में ही ग़ुम हो जाते हैं।
क़ाश! तुम्हें रख पाता मैं
अपनी दराज़ में
उस टूटी घड़ी की तरह
अटकी हैं जिसकी सुईयाँ
आज भी उसी लम्हे पर
जब दिलाया था झूठा भरोसा
मुझे तुमने मेरा होने का।
मुझे समझना था
जीवन-सूरज के निकलते ही
पहली धुंध की तरह तुम भी
उड़ कर दूर चली जाओगी।
– प्रशान्त