प्रेम की मौत

जो कल चले गये साथ जीने को
दूसरी दुनिया में
इस दुनिया की नज़र में
कायर हैं,
वाह रे दुनिया!
बदल जाते हैं तुम्हारे नियम
सावन के बादल की तरह
जो गरजते तो हैं, पर
सब पर बराबर बरसते नहीं।

किसे पता था
जो रेल की पटरी पकड़ी थी तुमने
नहीं जाती थी किसी स्टेशन को
वो तुम्हारे जीवन का आखिरी टर्मिनल था,
वो आख़िरी निवाला
जो मिल कर चखा होगा तुमने
उन उलझी झाड़ियों में
कहाँ मिलता है वो स्वाद
दुनिया के किसी रेस्टॉरेन्ट में।

कैसे कर सकते थे दुस्साहस तुम
प्रेम करने का
वो भी ऐसा
जो किसी परिभाषा में बंधा नहीं था,
कैसे भूल गए तुम ये सत्य, कि
स्वरचित परिभाषाओं वाला समाज
नहीं समझेगा कभी मूल्य
तुम्हारी सरल, सरस भावनाओं का।

तुम भूल गये शायद
हर बच्चा इंसान से ज़्यादा
ट्रॉफी है अपने घर की,
वो बचपन में तुम्हारे प्रदर्शन पर
बजने वाली ताली
सिर्फ प्रशंसा की नहीं
प्रत्याशा थी एक ट्रॉफी की
जो तुम्हारे घर को पड़ोसी से
आगे कर देती।

तुमने पाप तो किया है
आत्महत्या से ज़्यादा
प्रेम का पाप,
तुम्हें देख लेने चाहिए थे पहले से
वो सारे मानक
जो तुम्हारे प्रेम को पवित्र कर देते;
जाति,
धर्म,
वर्ण,
मुद्रा,
सुविधा,
परिवार,
पद,
रोज़गार,आदि जैसे कारकों को
कैसे भूल गये तुम?
इतनी तो क़ीमत बनती है
तुम्हारे पालन पोषण की।

वो रेल जब धड़धड़ाती हुयी
गुज़री होगी तुम्हारे ऊपर
क्या तुम्हारे हाथ छूटे नहीं थे
जिन्हें तुम जीते जी भी पकड़ न पाये थे,
काश! कोई बता पाता
इस शरीर के परे बसी दुनिया
कैसी है?
कहाँ है?
काश! तुम वहाँ पहुँचे हो
सही पते पर।

वहाँ, तुमने
साथ मिल कर बनाया हो अपना घर
कुछ ऐसे नियम
जिनमे संभावना बाकी हो
मनुष्य बने रहने की,
प्रेम सोच कर नहीं होता
सोच कर होता है बस व्यापार,
प्रेम आकर्षण भी नहीं है
न है कोई ऐसा काम
जिसे करना ज़रूरी हो
प्रेम है भावों का नैसर्गिक उद्वेग
जो बंध ही नहीं सकता,
जो बंध गया
किसी परिस्थिति या किसी कारण से
वो जड़ है
और, जड़ तो सिर्फ मृत्यु होती है
प्रेम नहीं,
प्रेम चेतन है, जीवन है।

काश यहीं मिल जाता
तुम्हे वो सब कुछ
जिसकी तलाश में
तुमने नया जीवन चुन लिया,
काश कभी नहीं होती
तुम्हारे प्रेम की मौत!

-प्रशान्त 

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