आम प्रेम

प्रेम जब पक नहीं पाता
कसैला हो जाता है,
उस आम की तरह
जो न चूसा जा सकता है
न खाया जा सकता है
न बनाया जा सकता है अचार ही।

हम अक्सर क्यों भूल जाते हैं
और सब के साथ प्रेम में ये भी,
कि,
हर स्त्री माँ नहीं होती
हर पुरुष पिता नहीं होता,
और
हर पत्थर, पुस्तक, तस्वीर
भगवान नहीं होती!

काश! आम पेड़ पर ही पका रहता
नहीं टपकता कभी ज़मीन पर,
मैं उछल कर खा लेता उसे
डंठल सहित,
क्योंकि अलग है स्वाद
ज़मीन पर फैली और हवा में उड़ती
धूल का।

जब ख़त्म ही होना हो
तो हवा में हो,
क्या पता अर्सों से रुकी साँस
वहीँ चल जाये,
जो जीते जी पक न सका
मर कर पक जाये।

आखिर,
पक जाते हैं
पाल लगाकर रखे
कच्चे आम भी,
नकली मीठा बेहतर है
कसैले आम से।

ये मत भूलना कभी
मौसमी फल है आम
और , प्रेम भी!

-प्रशान्त

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