ढूँढ़ता रहा

वो नूर मेरी आँखों में ही था
जिसे मैं हर सू ढूंढ़ता रहा

उल्फ़त मेरी कभी ख़त्म न हुयी
ये अलग बात दिल टूटता रहा

जब तक मिला न ख़ुदा मुझे
मैं हर एक बुत को पूजता रहा

महकूम बनाती रहीं हमको तंज़ीमें
कौन सुनता है नारा जो गूँजता रहा

ज़िन्दगी दौड़ती रही चमकती सड़कों पर
एक मैं माज़ी की गलियों में घूमता रहा

-प्रशान्त

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