शान्त शाम

बहुत सालों बाद
आज की तारीख़ वाली शाम
बिल्कुल शान्त है
ठीक वैसे ही
जैसे शान्त थी तुम उस दिन
संचारित था जब प्रेम
दो जोड़े होठों में
जो आशा-प्रत्याशा में
शर्माते थरथराते थे

पर वह शान्ति मलिन न थी
उद्वेग था उसमें पर ग्लानि नहीं
वो स्वतंत्रता नहीं
आज महँगे कपड़ो में भी
जो नग्न होते हुये भी
रहती थी तुम्हारे सामने
जब बिना कुछ सोचे तुम
कह देती थी तुम यूँ ही
तुम ही प्रेम हो!

पितृसत्ता-स्त्रीवाद
रूढ़ीवाद-आधुनिकतावाद
कुछ वाद अनेक विवाद
हमारी क्रिया और प्रतिक्रियावाद
न सच था वो,न तुम और न मैं ही
फ़िल्में हमेशा कहाँ सच्ची होती हैं?
सत्य भी सदैव कहाँ होता है सत्य?
स्वयं दूर जाने के बहाने आज
तुम हो कहीं, और
मैं हूँ कहीं और……

प्रशान्त

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