वो तो मेरा माज़ी था

हाँ ये सच है कि उस वक़्त मैं राज़ी था
पर जो बीत गया,
वो तो मेरा माज़ी था

फ़ीके ही सही मेरी क़लम के अशआर हैं ये
जो छूट गया गहरा स्याही में,
वो तो मेरा माज़ी था

तसव्वुर में मेरे आज अक्सों की है दौलत
सच्ची थी तस्वीरें जो,
वो तो मेरा माज़ी था

हिज्र की ठंडी आहें जमा देती हैं सब
नर्म साँसों की थी जो रजाई,
वो तो मेरा माज़ी था

अरसे से न हुयी है किसी से दिल की बात
जब रोज़ हो जाती थी मुलाकात,
वो तो मेरा माज़ी था

कितना ढूँढोगे कल को आज में ‘प्रशान्त’
आसानी से जो मिल जाता था,
वो तो मेरा माज़ी था

-प्रशान्त 

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