जैसे पहली बार मिले थे तुम
थोड़े से मासूम
थोड़े से नाज़ुक
थोड़े से अल्हड़
थोड़े से ‘तुम’
सब सुन्दर था तब
उस बड़े घर की तरह
जिसके अंदर कोई गया नहीं
हर कोना नया था
अनछुआ सा, सब ढका था
धूल से बचाने वाले कपड़ों से
सुन्दर थे तुम? पता नहीं!
कैसे थे तुम? पता नहीं!
बस इतना पता है
कुछ अलग था तुम में
जैसा छोटी सी ज़िन्दगी में
कभी देखा न था
आमंत्रण था मुझको
तुम्हारे नयनों से
पिपासा मुझ में भी थी
नहीं उत्कट जितनी तुम्हारी
सोचने वाला जीव हूँ, फिर भी
क्यों चला आया तुम्हारे पास?
ऐसा कुछ भी तो न था तुम में
जो जिज्ञासा भर सके मेरे मन में
जो उद्वेलित कर सके मुझको
भेदने को तुम्हारा आवरण
फिर भी पहुँचा तुम्हारे द्वार
स्वीकार किया आमंत्रण
क्यों खरोंचा अपने नाखूनों से
तुमने मेरे चोटिल उर को
कुछ ऐसे क्यों दी हथेली अपनी
साथ ठन्डे बहते रक्त के
मैं भी समा गया तुम में
पा कर ऊष्मा तुम्हारे प्रेम की
वही प्रेम, जो था निराधार
महज कल्पना तुम्हारे दमित विचारों की
मिला था न जिसे कोई उद्गार
बुला ले अंदर, कोई ऐसा द्वार
मस्तिष्क के जा कर विपरीत
मैंने भी कर दिया समर्पण
कदाचित शेष था होना ज्ञात
नग्नता हमेशा सुन्दर नहीं होती
शिव हमेशा सत्य नहीं होता
हर निकटता प्रेम नहीं होती
क्योंकि, नग्न थे हम तन-हृदय
फिर भी, प्रेमी न थे!
-प्रशान्त
badhiya
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badhiya
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धन्यवाद धनञ्जय! तुम्हारी प्रशंसा बहुत मायने रखती है|
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